नेवर गो बैक | लेखक: ली चाइल्ड | शृंखला: जैक रीचर | अनुवादक: विकास नैनवाल

वैष्णव की फिसलन - हरिशंकर परसाई

रेटिंग : 4.5/5

संस्करण विवरण :
फॉर्मेट : हार्डकवर 
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन 
पृष्ठ संख्या : 111
आईएसबीएन-10: 8126703393
आईएसबीएन-13: 978-8126703395

'वैष्णव की फिसलन' हरिशंकर परसाई जी का व्यंग संग्रह है। इस किताब को मैंने इसी साल दूसरी बार पढ़ा है। मेरा व्यक्तिगत रूप से मानना है कि हर हिंदी भाषी को हरिशंकर परसाई जी को जरूर पढना चाहिए। हमारे समाज को देखकर उसकी कुरीतियों के ऊपर वे जैसा करारा प्रहार करते हैं ऐसा मैंने अभी तक और कहीं नहीं पढ़ा। प्रस्तुत संग्रह में उनके १९ लेखों को संकलित किया  गया है। परसाई जी बताते हैं कि इनमे से पहले १६ तो मूल रूप से व्यंग ही हैं और आखिरी के तीन निबंध है जो उन्होंने उस वक्त लिखे थे। जब भी मैं किसी संकलन को पढता हूँ तो मेरी कोशिश रहती है कि हर रचना पर अलग से विचार व्यक्त करूँ। इधर भी ऐसे ही किया है। इससे पोस्ट तो लम्बी होती है लेकिन मुझे लगता है कि संकलन के विषय में इससे ज्यादा अच्छे तरीके से पता चल पायेगा।  पुस्तक में निम्न रचनायें हैं:


1) वैष्णव की फिसलन 

पहला वाक्य :
वैष्णव करोड़पति है। 

वैष्णव परेशान है। जब उसके पास दो नंबर का पैसा ज्यादा हो जाता है तो वो एक होटल खोलने की सोचता है। लेकिन होटल खोलना और उससे मुनाफा कमाना दो अलग बातें हैं। वैष्णव को जल्द ही पता चलता है जिस मांस, मच्छी, मदिरा  से वो कोसों दूर भागता है उसके बिना होटल नहीं चल पायेगा। वो   पशोपेश में है। क्या करे और अपने ईश्वर की शरण में जाता है।  आगे क्या होता है वो तो इस व्यंग में ही आप पढियेगा।

वैष्णव की फिसलन - हार्डबैक 'वैष्णव की फिसलन' धार्मिक पाखंड को दर्शाता एक व्यंग है।  धर्म के नाम पर अगर किसी चीज की मनाही हो  लेकिन उसे करना जरूरी हो तो इन्सान कोई न कोई तरीका ढूँढ लेता है। वो अपने आप को समझाने के ऐसे ऐसे उपाय खोज लेता है कि उन चीजों में भी धर्म और ईश्वर ढूँढ लेता है। ऐसा नही  है कि ये केवल हिन्दू धर्म में है या वैष्णव ही ऐसे होते हैं। ये तो उदाहरण है वरना हर धर्म में ऐसे लोग मिल जाते हैं। पंडित, पादरी, मौलाना, भिक्षु और ऐसे ही धार्मिक  गद्दियों में बैठे कई लोग इस श्रेणी में आते हैं।

धार्मिक पाखंड को दर्शाता उम्दा व्यंग।


2) अकाल उत्सव

पहला वाक्य:

दरारोंवाली सपाट भूमी नपुसंक पति की स्न्तानेच्छू पत्नी की तरह बेकल नंगी पड़ी है।देश में पड़ते

अकाल को लेकर लिखा गया ये व्यंग बेहद धारदार है। सरकार, विपक्ष, सरकारी अफसर सभी को इस लेख में लिया गया है। चाहे वो सरकार के झूठे वायदे हों, विपक्ष का अकाल के वक्त अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंकना हो, कालाबाजारियों का राजनीतिज्ञों से साँठ-गाँठ, सरकारी अफसरों का राहत कार्यों के पैसे का बैजा इस्तेमाल या इन सब के बीच पिसते आम इंसान परसाई जी ने इस लेख में सभी के विषय में लिखा है।

व्यंग के कुछ अंश:
आजकल अखबारों में आधे पृष्ठों पर सिर्फ अकाल और भुखमरी के समाचार छपते हैं। अगर अकालग्रस्त आदमी सड़क पर पड़ा अखबार उठाकर उतने पन्ने खा ले, तो महीने भर भूख नहीं लगे। पर इस देश का आदमी मूर्ख है। अन्न खाना चाहता है। भुखमरी का समाचार नहीं खाना चाहता।


बड़ी प्रार्थना होती है। स्मगलर और जमाखोर साल भर अनुष्ठान कराते हैं। स्मगलर महाकाल को नरमुंड भेंट करता है। इंजीनियर की पत्नी भजन गाती है-- प्रभु कष्ट हरो सबका! भगवन पिछले साल अकाल पड़ा था तब सक्सेना और राठौर को आपने राहत-कार्य दिलवा दिया था। प्रभो, इस साल इधर अकाल कर दो और 'इनको' राहत-कार्य का इनचार्ज बना दो!'

मैं एक विधायक से पूछता हूँ,"अकाल की स्थिति कैसी है?"वह चिंतित होता है। मैं समझता हूँ यह अकाल से चिंतित है।मुझे बड़ा संतोष होता है।वह जवाब देता है,"हाँ, अकाल तो है, पर ज्यादा नहीं है। कोशिश करने से जीता जा सकता है। सिर्फ ग्यारह विधायक हमारी तरफ आ जायें, तो हमारी मिनिस्ट्री बन सकती है।"

पर सोचता हूँ, ये जीवित क्यों हैं?
ये मरने की इच्छा को खाकर जीवित हैं। ये रोज कहते हैं-"इससे तो मौत आ जाए तो अच्छा!"पर मरने की इच्छा को खा जाते हैं। मरने की इच्छा में पोषक तत्व होते हैं।जीने की इच्छा गोंद होती है जो शरीर जोड़े रखती है।मरने की इच्छा में पोषक तत्व होते हैं।

अब ये भूखें क्या खायें? भाग्य-विधाताओं और जीवन के थोक ठेकेदारों की नाक खा गये, कान खा गये, टांग खा गये। वे सब भाग गये। अब क्या खायें?
अब क्या खायें? आखिर वे विधानसभा और संसद की इमारतों के पत्थर और ईंटें काट-काटकर खाने लगे।


एक धारधार व्यंग जो आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना उस वक्त था  जब लिखा गया था।

3) लघुशंका न करने की प्रतिष्ठा

पहला वाक्य:
शेर जब जंगल के किसी कोने में आ जाय, तो चीता बकरी से पूछता है,"बहनजी, साहब के स्वागत के लिए और क्या-क्या इंतजाम किया जाय?"

दफ्तरों पर जब बड़े साहब का आगमन होता है तो अलग माहौल होता है। चाटुकारिता चरम पर होती है और सब इसी में लगे रहते हैं कि साहब के सामने दिखें तो कुछ बात बने। ये हर दफ्तर का हाल है। इसी को इस व्यंग में परसाई जी ने दिखाया है। इसके इलावा ऑफिस में ही बड़े ओहदों वाले और छोटे ओहदों वालों के परिवार के बीच में क्या समीकरण होता है इसे भी इस व्यंग से दर्शाया गया है।


व्यंग के कुछ अंश :
बड़ा साहब स्टीम रोलर होता है, जो डिपार्टमेंट के बड़े छोटे का भेद मिटा देता है। सब समतल हो जाते हैं, क्योंकि सब डरे हुए होते हैं। डर भेद मिटाता है।प्रेम नहीं मिटाता। डर खुद प्रेम पैदा करता है।


मिसेज खन्ना दिल्ली से आने वाले साहब की 'तथाकथित' धर्मपत्नी हैं- ऐसी डिपार्टमेंट में हवा है। हर डिपार्टमेंट में ऐसी स्वास्थ्यवर्धक हवा बहती रहती है। इससे हीनता और घुटन की बीमारी से बीमार कर्मचारियों के फेफड़े साफ होते हैं।

आखिर एक साहसी अधेड़ स्त्री माइक पर पहुँची और गाने लगी,'ए मालिक तेरे बंदे हम...' खन्ना साहब समझे कि गाने में उन्हीं को 'ए मालिक!' कहा जा रहा है, वे संतुष्ट हुआ-- डिसिप्लिन सेटिसफैक्टरी।


4) तीसरे दर्जे का श्रद्धेय

पहला वाक्य:

बुद्धिजीवी बहुत थोड़े में संतुष्ट हो जाता है।

तीसरे दर्जे के श्रद्धेय में लेखक के तंज के निशाने में दो चीजे हैं। एक तो 'सो-कॉल्ड' बुद्धिजीवी जो बातें तो बड़ी बड़ी करते हैं लेकिन हरकतों का बातों से लेना देना नहीं होता। लेखक अपने को भी इसी श्रेणी में लेता है। कहानी प्रथम वचन में है जिसमे लेखक को भाषण देने के लिए बुलाया गया है। लेखक चाहता है कि लोग उसे ट्रेन के तीसरे दर्जे का सफ़र करते हुए न देखें इसलिए वो जुगत लगाता है कि कैसे आयोजकों के आने से पहले तीसरे से पहले दर्जे में जाए ताकि उन्हें भी लगे किसी बड़े आदमी को बुलाया। और दूसरा इसमें परसाई जी ने देश के कामकाज करने के तरीके को भी आड़े हाथों लिया है। वैसे तो लेख आज़ादी के पच्चीस वर्षों बाद का हाल बयान करता है लेकिन आज सत्तर वर्षों बाद भी आप देखें तो हालात उससे कुछ जुदा नहीं है। चाहे वो बुद्धिजीवी हो या देश के काम काज करने का तरीका दोनों ऐसे ही हैं जैसे इस लेख में दर्शाए गए हैं।

व्यंगय के कुछ अंश

कोर्स का लेखक वह पक्षी है, जिसके पाँवो में घुँघरू बाँध दिये गए हैं। उसे ठुमकर चलना होता है। ये आभूषण भी हैं और बेड़ियाँ भी।

कितना ही प्रखर बुद्धिजीवी हो, अगर तीसरे दर्जे से उतरता हुआ देख लिया जाता है, तो उसका मनोबल घट जाता है। तीसरे दर्जे से उतरा और बुद्ध(नहीं अबुद्ध) शाकाहारी होटल में ठहरा बुद्धिजीवी आधा बुझ जाता है।....पहला दर्जा और गोश्त बुद्धिजीवी को प्रखर बनाते हैं।

चिपके का क्या भरोसा! पच्चीस सालों में क्या क्या नहीं चिपका इस देश में! संविधान के निर्देशक सिद्धांत चिपके हैं। पर अमल नहीं। चिपका है गांधी जी का वाक्य- 'स्वराज्य में हर आँख का आँसू पोंछा जाएगा।' मगर यही तय नहीं हो पा रहा है कि रुला कौन रहे हैं।... चिपके कागज का क्या भरोसा!समाजवादी ढंग का नारा चिपका था। पर काम सब बेढंगा हो रहा था। फिर 'जनतांत्रिक समाजवाद' चिपक गया। फिर 'समाजवाद' चिपका।अब 'गरीबी हटाओ' चिपका है। मगर कीमतें बढ़ रही हैं। चिपके कागज का कोई भरोसा नहीं रह गया।

मैं अब तख्ते में देखता हूँ। लिखा है - 'राईट टाइम'। मुझे भरोसा नहीं होता। कल का लिखा हो और मिटाया न गया हो। या कोई और गाड़ी 'राईट टाइम' हो लेकिन लिख इसके सामने दिया गया हो।मैं फिर दो बाबुओं से पूछता हूँ, जो कहते हैं कि गाड़ी 'राईट टाइम' है। फिर भी मुझे विश्वास नहीं होता है। गाड़ी समय से पहले भी आ सकती है और लेट भी।

अब मैं प्लेटफार्म पर खड़ा गाड़ी का इंतजार कर रहा हूँ। मैं जानता हूँ, गाड़ी पूर्व से आती है, पर मैं पश्चिम की तरफ भी देखता हूँ। दोनों तरफ से गाड़ी का इन्तजार करता हूँ। कोई ठिकाना नहीं है। पूर्व से आनेवाली गाड़ी पश्चिम से भी आ सकती है।


5) भारत को चाहिए - जादूगर और साधू 

पहला वाक्य:

हर १५ अगस्त और २६ जनवरी को मैं सोचता हूँ कि साल भर में कितने बढ़े।


एक देश के तौर पर भारत को क्या चाहिए? लेखक को लगता है जिस तरह भारत में नये नये जादूगरों और साधुओं की संख्या बढती जा रही है उससे तो लगता है कि देश को केवल ये दोनों ही चाहिए। ऐसा क्यों है इसके विषय में ही इस लेख में लिखा गया है। अच्छा लेख और आज भी उतना ही प्रासंगिक। जब भी मैं इस संग्रह के लेखों को पढता हूँ तो सोचने पर विवश हो जाता हूँ कि क्या इतने सालों में हम बिलकुल भी नहीं बदले। जैसा इसमें लिखा है वैसे ही मुझे अपने आस पास दिखाई देता है।                                           



  • व्यंग के कुछ अंश 

    सोचना एक रोग है, जो इस रोग से मुक्त हैं और स्वस्थ हैं, वे धन्य हैं।

    मैं पूछता हूँ, "जादूगर साहब, आँखों पर पट्टी बांधे राजनीतिक स्कूटर पर किधर जा रहे हो? किस दिशा को जा रहे हो- समाजवाद? गरीबी हटाओ? खुशहाली ? कौन सा गंतव्य है?"वे कहते हैं,"गंतव्य से क्या मतलब? जनता आँखों पर पट्टी बांधे जादूगर का खेल देखना चाहती है। हम दिखा रहे हैं। जनता को और क्या चाहिए?"

    ब्रह्म एक है पर वह कई हो जाता है। एक ब्रह्म ठाठ से रहता है, दूसरा राशन की दूकान की लाइन में खड़ा रहता है, तीसरा रेलवे के पुल के नीचे सोता है।
    सब ब्रह्म ही ब्रह्म है।
    शक्कर में पानी डालकर उसे वजनदार बनाकर बेचता है; वह भी ब्रह्म है और जो उसे मजबूरी में खरीदता है वह भी ब्रह्म है।
    ब्रह्म ब्रह्म को धोखा दे रहा है

    6)चूहा और मैं 
    पहला वाक्य:
    यह कहानी स्टीन बेक के लघु उपन्यास 'ऑफ़ मेन एंड माउस' से अलग है।
    जैसा की लेख के शीर्षक से जाहिर है कि लेख चूहे और लेखक के अनुभव के ऊपर है। चूहे के विषय में लेखक लिखते हैं: जो मैं नहीं कर सकता, वह मेरे घर का चूहा कर लेता है। जो इस देश का सामान्य आदमी नहीं कर पाता, वह इस चूहे ने मेरे साथ करके बता दिया।

    चूहा ऐसा क्या कर सकता है ये तो आपको लेख पढ़कर ही पता चल पायेगा। अभी इतना ही कहूँगा यह हमारे देश के आम आदमी और उसकी प्रवृत्ति के ऊपर एक करारी चोट करता व्यंग है।

    7) राजनीति का बँटवारा 

    पहला वाक्य:
    सेठजी का परिवार सलाह करने बैठा है।

    नगर निगम के चुनाव का वक्त नजदीक आ रहा था। ऐसे में सेठ जी अपने पूरे परिवार के साथ बैठकर मंत्रणा कर रहे थे। इस चुनाव में निगम किस पार्टी के हाथ में जाएगा और सेठ जी परिवार समेत इससे कैसे जूझेंगे यही इस चर्चा का विषय होना था। इस चर्चा का नतीजा क्या निकला ये तो आप व्यंग को पढ़कर ही जानेंगे।

    सटीक व्यंग जो कि आज भी उतना ही प्रासंगिक है। आप इस व्यंग को पढ़ते हुए उन चेहरों के विषय में सोच सकते हैं जो कि ऐसा करते होंगे।

    व्यंग के कुछ अंश:
    अब भैयाजी को बर्दाश्त नहीं हुआ। उन्होंने लड़के को डाँटा,"तू मूर्ख है। इसी वक्त यहाँ से उठ और कमरे में जाकर उस कचरे को पढ़ जिसे तू 'पोलिटिकल साइंस' कहता है। हमने भी जीवन भर राजनीति की है। चालीस साल हो गये, पर राजनीति को हमने कभी विज्ञान नहीं, 'कला' कहा। फिर आज़ादी के बाद राजनीति को 'कलाबाजी' कहने लगे। अब तू इस उम्र में। राजनीति को विज्ञान कहने लगा। जा, भाग यहाँ से!"

    8) धोबिन को नहिं दीनी चदरिया 

    पहला वाक्य:
    पता नहीं, क्यों भक्तों की चादर मैली होती है।

    लेख का शीर्षक इस दोहे से आता है:
    दास कबीर जतन से ओढ़ी
    धोबिन को नहीं दीन्हीं चदरिया

    लेखक के घर एक भक्त आते हैं। भक्त के विषय में मशहूर है कि
    भजन पूजन में लगे रहते हैं। भगवान से लौ लगी है।
    अब ये भक्त क्यों आये हैं इसका पता तो लेख पढ़कर ही आपको होगा।
    समाज में ऐसे कई लोग आपको मिल जायेंगे तो पूजा अर्चना में लगे रहते हैं लेकिन मन में उनके विचार बिलकुल विपरीत ही रहते हैं। ऐसे ही ढोंगी लोगों पर ये व्यंग है।

    व्यंग के कुछ अंश:
    भगवान से लौ लगी है। आदमी तुच्छ हैं। पड़ोस में कोई मर रहा हो तो देखने भी नहीं जायेंगे। बड़े शांतिमय, निर्मल आदमी हैं, क्योंकि लौ दुनिया से नहीं, आदमी से लगी है।

    घर में खाने पीने का सुभीता हो, जिम्मेदारी न हो, तो संत और भक्त होने में सुभीता होता है।
    9) देश के लिए दीवाने आये 
    पहला वाक्य :
    देश के लिए दीवाने आ गये। 

    दोपहर के दो बजे थे जब एक व्यक्ति लेखक के घर के सामने आये। वो पिए हुए थे और लेखक से देश कल्याण के ऊपर चर्चा करना चाहते थे। आगे क्या हुआ ? इस व्यंग में आपको पढने को मिलेगा।
    ये ठीक ठाक व्यंग था। लोग खुद तो बैमानी करते है लेकिन उन्हें अपनी बैमानी छोड़ कर दूसरों की बैमानी ज्यादा साफ़ दिखती है। यही इस व्यंग में दर्शाया भी गया है। ऐसे कई लोगों से मैं भी मिला हूँ। अगर  कोई बैमान उनके  काम में रुकावट डाले तो ही वो बैमान होता है अगर वही व्यक्ति बैमानी से उनका काम करवा दे तो वो ईमानदार से भी ऊँचा होता है। यही इसमें दर्शाया है।

    व्यंग के कुछ अंश:

    सत्य शुभ हो, अशुभ हो, काला हो,सफेद हो - साहित्य उसी से बनता है।

    वे शांत हो गये।  कुछ शोकग्रस्त भी। कुछ पछतावे में भी। आँखों में आँसू आ गये। आदमियत पानी बनकर निकल रही है। पता नहीं, जन की आँखों से खून बनकर कब निकलेगी। मैं इन्तजार में हूँ।

    10) शवयात्रा का तौलिया 
    पहला  वाक्य:
    मनुष्य को जीवन की सार्थकता खोजनी पड़ती है।


    धार्मिक आडम्बर अक्सर स्वार्थ सिद्धि के लिए होते हैं। जब वो स्वार्थ सिद्ध हो जाएँ  तो अक्सर लोगों को उसकी जरूरत नहीं दिखती। अक्सर लोग उतना ही दान पुण्य करना चाहते हैं जितने से उनका काम बन जाए। जिस व्यक्ति ने पूरे साल भर दूसरे के मुँह से निवाला छीन कर खाया है वो साल में एक बार भंडारा रख देता है। इस भंडारे का काम पुण्य कमाना ही होता है। जिस बहु ने अपनी सास की दुर्गति जीवन भर की वो उसके मरने के बाद ब्राह्मण भोज रख देती है। इसका काम भी पुण्य कमाना ही है। ऐसी ही सोच पर ये व्यंग है। एक व्यक्ति है जो हर किसी के मरने पर उनका दुःख साझा करने पहुँच जाता है। लेकिन क्या वो असल में दुखी है? या ये उसके लिये पुण्य कमाने का मौका है और वो इसे खुद की स्वार्थ सिद्धि के लिए कर रहा है। यही इस व्यंगय में दर्शाया है। एक सटीक व्यंगय।

    व्यंगय के कुछ अंश :

    बिना सार्थकता खोजे मनुष्य जी तो सकता है, पर बोझ-सरीखा जीवन ढोता है और जल्द से जल्द इस बोझ को कंधे से उतार देता है। साधारण आदमी नौकरी, बीवी और बच्चों में जीवन की सार्थकता ढूँढ लेते है।
    मुसीबत उस आदमी की है जो विशिष्ट हुए बिना नहीं जी सकता। वह जिस क्षण अपने को विशिष्ट नहीं पायेगा, मृत्यु के निकट पहुँच जायेगा।


    जिसकी जान बचाने के लिए फोन नहीं करने दिया, उसकी शव यात्रा में वे रोते हुए जा रहे थे और लोग कह रहे थे, "भई आदमी हो तो ऐसा। हर मट्टी में जाते हैं--और देखो कैसे रो रहे हैं जैसे सगा  भाई मर गया हो।"




    11) शर्म की बात पर ताली पीटना

    पहला वाक्य:
    मैं आजकल बड़ी मुसीबत में हूँ।

    ये व्यंग सबसे ज्यादा चोट करता है। एक व्यंगकार होने के नाते कैसे उनकी हर बात को मज़ाक समझ कर उसका रस लिया जाता है ये खीझ ही इस व्यंग में दिखती है।  ये खीझ हर व्यंगकार को होती होगी क्योंकि उसे पता है वो जो बात कर रहा है वो कितनी संजीदा है लेकिन लोग उसे न समझ कर बस उसका आनंद  ले रहे हैं। इस व्यंग की आखिरी पंक्ति  काफी कुछ कह जाती है।  एक विचारोत्त्क लेख।

    वैष्णव की फिसलन -पेपरबैक12) दो  नाकवाले लोग 

    पहला वाक्य:
    मैं उन्हें समझा रहा था कि लड़की की शादी में टीमटाम में खर्च मत करो।

    अक्सर भारतीय समाज में किसी भी काम को करते समय इस बात पर ध्यान रखा जाता है  कि इस काम को करने के पश्चात समाज और बिरादरी में लोग क्या सोचेंगे। परसाई जी का व्यंग इसी सोच  के  ऊपर है। आदमी चाहे खुद को कितना ही आधुनिक क्यों  न कहे, चाहे को कितनी ही रूढ़ियों से आज़ाद क्यों न समझे लेकिन लोग क्या कहेंगे  कभी न  कभी वो सोचता है। एक अच्छा पठनीय व्यंग।

    व्यंग के कुछ अंश : 
    नाक उनकी काफी लम्बी थी। मेरा ख्याल है, नाक की हिफाजत सबसे ज्यादा इसी देश में होती है। और या तो नाक बहुत नर्म होती है या छुरा तेज, जिससे छोटी-सी बात से भी नाक कट जाती है।'

    जूते खा गये'- अजब मुहावरा है। जूते तो मारे जाते हैं। वे खाये कैसे जाते हैं? मगर भारतवासी इतना भूखमर है कि जूते भी खा जाता है।

    बिगड़ा घोडा और बिगड़ा रईस एक तरह के होते हैं- दोनों बौखला जाते हैं। किससे उधार लेकर खा जायें, ठिकाना नहीं। उधर बिगड़ा घोडा किसे कुचल दे, ठिकाना नहीं। आदमी को बिगड़े रईस और बिगड़े घोड़े दोनों से दूर रहना चाहिए।.. मैं तो मस्ती में डोलते आते सांड को देखकर भी सड़क के किनारे की इमारत के बरामदे में चढ़ जाता हूँ, "बड़े भाई साहब आ रहे हैं। इनका आदर करना चाहिए।"

    बहुत से लोग एक परम्परा से छुटकारा पा लेते हैं, पर दूसरी से बंधे रहते हैं। मेरा एक घोर नास्तिक मित्र था। हम घूमने निकलते तो रास्ते में राम-मंदिर देखकर वे कह उठते -'हरे राम!' बाद में पछताते थे।
    13)  अशुद्ध बेवकूफ

     
    पहला वाक्य:
    बिना जाने बेवकूफ बनाना एक अलग और आसान चीज है।

    कई बार लोग आपसे काम निकालने के लिए बहाने मारकर आपके पास आते हैं। आपको पता होता है कि उन्हें केवल अपने काम से मतलब है न कि आपसे। और काम निकलने के बाद आप उनके लिए कोई मायने नहीं रखेंगे।  कई बार तो ऐसे प्रतीत होता है कि वो आपको बेवकूफ समझ रहे हैं। आप भी कई बार न समझने की एक्टिंग करते हैं और उनकी हाँ में हाँ मिलाने लगते हैं। ऐसे ही बेवकूफ न होते हुए भी बेवकूफ बनने के ढोंग करने वाले व्यक्ति को अशुद्ध बेवकूफ कहा गया है। वयंग तीखा है और सटीक जगह वार करता है।

    व्यंग के कुछ अंश:

    यह जानते हुए कि मैं बेवकूफ बनाया जा रहा हूँ और जो मुझसे कहा जा रहा है, वह सब झूठ है- बेवकूफ बनते जाने का एक अपना मज़ा है। यह तपस्या है।

    शुद्ध बेवकूफ एक दैवी वरदान है, मनुष्य जाति को। दुनिया का आधा सुख खत्म हो जाय, अगर शुद्ध बेवकूफ न हों।

    मैने कहा- 'कुछ सुनाइए।'
    वे बोले,'मैं आपसे कुछ लेने आया हूँ।'  
    मैं समझा, वे शायद ज्ञान लेने आये हैं।
    मैंने सोचा- यह आदमी तो ईश्वर से भी बड़ा है। ईश्वर को भी प्रोत्साहित किया जाय तो वह अपनी तुकबन्दी सुनाने के लिए सारे विश्व को इकट्ठा कर देगा।

    14) सम्मान और फ्रेक्चर
    पहला वाक्य:
    इन दिनों मेरे चरण के दर्शन के लिए बहुत लोग आ रहे हैं।

    आजकल लेखक से मिलने काफी लोग आ रहे हैं। सभी उनके चरण भी छू रहे हैं। ऐसा क्यों हो रहा है ये तो आपको लेख पढने के बाद ही पता चल पायेगा।
    परसाई  जी ने इस व्यंग में कई चीजों के ऊपर प्रहार किया है। लेखकों का आचरण, साहित्य और राजनीति का गठजोड़, लोगों में आ रही नैतिकता कि कमी जैसी चीजों के विषय में इस लेख में लिखा गया है।
    हाँ, पढ़ते समय लग रहा था कि एक साथ कई बिन्दुओं के ऊपर लेखक लिख रहे थे। अगर एक ही बिंदु पर लेख होता ज्यादा बेहतर होता। अभी इसमें मौजूद विचार बिखरे हुए (स्कैटर्ड/scattered) से लगते हैं जिससे व्यंग थोड़ा कम धारदार लगता है।  फिर भी ये पठनीय है।

    व्यंग  के कुछ अंश 

    ये श्रद्धेय सवेरे चरण-स्पर्श का नाश्ता करते हैं। भयंकर शीत में भी पाँव चादर के बाहर रखते हैं, जिससे श्रद्धालु को चरण तलाशने में तकलीफ न हो। फिर साबुन से सारे शरीर को तो नहाकर स्वच्छ कर लेंगे, पर चरणों को गंदा रखेंगे- श्रद्धालु को यदि चरणों की रज चाहिए, तो उसका इंतजाम भी तो होना चाहिए।

    मुझे बाद में पछतावा भी हुआ कि मैं भी क्यों नहीं लेट गया। गिर क्यों नहीं गया? गिरने के बड़े फायदे हैं। पतन से न मोच आती है, न फ्रैक्चर होता। 

    मेरे दोनों पाँव फ्रैक्चर हो चुके हैं। अब रीढ़ की हड्डी ही बची है। इसकी मैं बड़ी सावधानी से रक्षा करता हूँ। बहुत आदमियों की रीढ़ की हड्डी नहीं होती। वे बहुत लचीले होते हैं।... मैं लगातार देख रहा हूँ कि राजनीति और साहित्य में बहुत लोग ऑपरेशन करवा के रीढ़ की हड्डी निकलवा लेते हैं। फिर इन्हें चाहे बोरे में भर लीजिये या सूटकेस में डाल लीजिये और कुली पर लदवाकर चाहे जहाँ जाईए।

    सम्मान और पुरस्कार के प्रति मैं शंकालु हूँ। सम्मान से आत्मा में मोच आती है और पुरस्कार से व्यक्तित्व में 'फ्रैक्चर' होता है।

    हम तो गलत पढ़े इतिहास की अवैध संताने हैं।


    15) पिटने-पिटने  में फर्क 

    पहला वाक्य:
    बहुत लोग कहते हैं- तुम पिटे।

    आये दिन हम अखबारों या समाचार में ये खबर सुनते हैं कि किसी न किसी साहित्यकार पे हमला हो गया है। चाहे वो पेरूमल मुरगन हों या टी एस जोसफ जिनका हाथ एक परीक्षा के सवाल के लिए काट दिया गया था। साहित्यकारों पे हमला करने वाले जितने भी लोग होते हैं अक्सर वो किसी न किसी राजनीतिक दल के होते हैं। ये हमले क्यों होते हैं और इसके बाद अक्सर क्या होता है इसी के ऊपर हरिशंकर परसाई जी ने बड़े चुटीले तरीके से लिखा है। मुझे ये तो नहीं पता कि उन पर कोई हमला हुआ था लेकिन व्यंग शानदार है और आज भी प्रासंगिक है।

    16)बचाव पक्ष का बचपन 

    पहला वाक्य:
    सुरेश मेरा लंगोटिया यार है। 
    लेखक के एक मित्र हैं जो कि पत्रकार हैं। लेखक के अनुसार वो काफी तीखा बोलते हैं और लिखते हैं। उनके लिखने का क्या असर होता है और वो जिनके खिलाफ लिखते हैं वो अपने बचाव के लिए कैसे हथकंडे अपनाते हैं उसी को चिट्ठी के माध्यम से दर्शाया गया है। ये चिट्ठी लेखक के दोस्त ने लेखक को भेजी है। संग्रह का एक और बेहतरीन व्यंग। अक्सर राजनीतिक दल जब फंस जाते हैं तो अक्सर ऐसे ही उथले बहाने बनाते हैं और इसी पर परसाई जी ने एक करारी चोट करी है। ऐसा हम आजकल काफी देख चुके हैं। चाहे वो नकली विडियो द्वारा जन भावना को भड़काना हो या किसी महिला की नकली फोटो सोशल मीडिया पर फैलाकर उसके चरित्र का हनन करना हो जिसके वजह से उसके द्वारा लगाये आरोपों  को खारिज किया जा सके। आज भी ज्यादा कुछ बदला नहीं है और लेख आज भी प्रासंगिक है।


    17) फिर उसी नर्मदा मैया की जय 

    पहला वाक्य:
    भाई का ससुराल होशंगाबाद में है और उसकी पत्नी तब वही  प्रलय के बीच थी।


    इस संग्रह में व्यंग्य के अलावा तीन लेख हैं। ये उनमें से पहला है। 1973 में मध्यप्रदेश के होशंगाबाद में आये बाढ़ के बाद परसाई जी ने इस लेख को लिखा था। लेख बाढ़ प्रभावित एरिया के दौरे और उधर हुए अनुभवों को तो दर्शाता ही है। उसके अलावा उधर के लोगों की नदी के प्रति आस्था, उनका उस नदी के साथ सम्बन्ध जो कभी जीवनदायनी हो जाती है और कभी विनाशकारिणी हो जाती है, लोगों का विपत्ति के वक्त का स्वभाव और बाढ़ से जुड़े परसाई जी के व्यक्तिगत अनुभव को भी दिखता है। परसाई जी क्योंकि व्यंग्य लेखक हैं तो व्यंग्य कभी कभी इस लेख में भी उभर कर आ जाता है। परसाई जी लेख के दौरान सवाल सरकारी मशीनरी पर भी सवाल उठाते हैं कि जब उन्हें पता है कि ऐसा इधर अक्सर होता है तो फिर उससे जूझने के लिए कुछ क्यों नहीं किया जाता।  मैंने जब गूगल किया तो पाया कि २०१६  में भी उधर के हाल कुछ जुदा नहीं थे।४० गांव बाढ़ में डूबे थे और  सरकारी मशीनरी उतनी ही लचर थी। लोग बाग़ एक दूसरे की मदद कर रहे थे।

    हाँ, लेख में एक सोलह वर्षीय लड़की सरस्वती का जिक्र है जिसने उस बाढ़ में अपनी जान पर खेलकर कई लोगों को बचाया था। परसाई जी उस कार्यक्रम में थे जिसमे उसे सम्मानित किया गया। लेख पढ़ते हुए मन में यही ख्याल आ रहा था उस लड़की का आगे चलकर क्या हुआ होगा।

    खैर, लेख पठनीय है और मारक भी।

    लेख के कुछ अंश:

    जिजीविषा बड़ी प्रबल होती है। मनुष्य मृत्यु पर विजय पाने की हर क्षण कोशिश करता है, घायल हो जाता है, पर फिर लड़ने को तैयार हो जाता है। 

    इधर मेरे शहर में मीठे तेल में बेकार हुए डीजल को मिलाया जाता है, पर उधर कुछ लोग दूकानें खोल देते हैं कि ‘ले जाओ ! कोई भूखा न मरे!’ कैसा विरोधाभास है! आदमी कब लकड़बग्घा हो जाये और कब करुणासागर - ठिकाना नहीं है। 

    जीने के लिए मरना पड़ता है। 

    मैंने कहा,”वे तुम्हारे दानदाता यहाँ मुझे नहीं दिख रहे हैं।  नाम पढ़ेंगे  और कोई नहीं आया तो बड़े शर्म की बात होगी। वे तो अपनी शर्म ऊँचे दामों पर बेच चुके, पर अपनी अभी बची है।”

    18) लेखक: संरक्षण, समर्थन और असहमति 

    पहला वाक्य:
    प्रदीप पन्त का एक पत्र मैंने 'मुक्तधारा' २३ दिसम्बर 1973 के अंक में पढ़ा। 

    कुछ दिनों पहले भी लेखकों के ऊपर आरोप लगते रहे कि वो फलानी पार्टी के एजेंट हैं या कोई कौर लेखक किसी दूसरी पार्टी का एजेंट हैं। इस लेख में भी परसाई जी इन्ही मुद्दों पर बात करते है। आखिर लेखक को कैसा होना चाहिए? क्या उसे सरकार विरोधी होना चाहिए या पूरी तरह सरकार का समर्थक। मेरे हिसाब से किसी भी व्यक्ति को एक सरकार का न पूर्ण विरोध करना चाहिए न पूर्ण समर्थन। यानी अगर सरकार अच्छा काम करती है तो उसका समर्थन होना चाहिए और यदि बुरा काम तो आलोचना बनती है। दिक्कत तब आती है जब बुरे कामों को भी लोग अच्छाई के आवरण चढ़ाकर उसे सही ठहराने की कोशिश करते हैं। परसाई जी लेख में ही एक उदाहरण देते हैं:

    अगर कोई मुख्यमंत्री (अपनी इमेज बनाने के लिए ही सही) जनता के जुलूस में शामिल होकर मुनाफाखोरी के विरुद्ध वातावरण तैयार करने में सहायक होता है - तो मैं उस जुलूस में जाऊँगा और उस मुख्यमंत्री को मजबूर करूँगा कि वह जनता को बताये कि वह क्या करना चाहता है।इसके बाद वो कुछ नहीं करता है तो ये मेरा लेखकीय अधिकार और धर्म है कि मैं कहूँ कि तुम झूठे हो और 'स्टंट' कर रहे थे।

    ये सबसे सही तरीका भी है।

    लेख के अंत में कुछ सवाल भी परसाई जी उठाते हैं जिन पर लेखकों को विचार करने की जरूरत है। मुझे लगता है आज भी ये सवाल प्रासंगिक हैं। वो सवाल निम्न हैं :

    संसदीय लोकतंत्र में लेखक सत्ता से अपना तालमेल कैसे बिठाये? क्या वह इस व्यवस्था का अंग हो गया है और 'संरक्षण' चाहता है? क्या वह 'समर्थन' देने को मजबूर हो गया है? या वह केवल 'स्टंट' करके लोगों को बेवकूफ बनाना चाह रहा है? या वह छद्दम क्रांतिकारिता ओढ़े हुए है?

    लेख के कुछ अंश:
    मज़ा ये है कि भारतीय लेखक एक साथ दो युगों में जीता है- मध्य युग में और आधुनिक युग में। वह कुम्भनदास की तरह घड़े बनाकर नहीं जीता, पर कहता है- 'सन्तन कहा सीकरी सों काम।' वह रैदास की तरह जूते नहीं सीता, न कबीर की तरह कपडे बुनता है - मगर बात उन्हीं के आदर्शों की करता है।

    19) कबीर समारोह क्यों नहीं

    पहला वाक्य:
    मानस चतुश्ती समारोह होने से मुझे कोई ऐतराज नहीं है। 

    ये लेख तब लिखा गया था जब शायद मानस चतुशती मनाई जा रही थी। उसी के संदर्भ में परसाई जी ने सवाल उठाया था कि इसके साथ कबीर समारोह होना चाहिए और ये क्यों होना चाहिए इसके लिए तर्क इस लेख में दिए हैं।

    लेख में परसाई जी अपने बिंदु रखते हैं कि भले ही तुलसीदास महान कवि थे लेकिन उनकी कुछ कमियाँ भी थी। वो धार्मिक अधिक थे और सामाजिक कम। फिर वो उनके ही रचनाओं के हिस्से उठाकर अपनी बात रखते हैं। अब न तो मैं तुलसीदास जी के विषय में इतना जानता हूँ और न ही मैंने उन्हें पढ़ा है तो मैं इस विषय में कुछ नहीं कहना चाहूँगा। इसलिए मैंने लेख को सरसरी निगाहों से पढ़ा।आपने इस लेख को पढ़ा है तो इसके विषय में अपने विचारों से जरूर अवगत करवाईयेगा।

    लेख के कुछ अंश
    जो लोग अकबर को रावण का प्रतीक मानकर 'जब जब होई धर्म की हानी' राम के अवतार की प्रतीक्षा कर रहे थे, वे यदि अवतार लेते, तो पहले इन छोटे छोटे हिन्दू राजाओं का नाश करते कि बेवकूफों, अपनी जाति को क्यों तोड़ रहे हो। 

    अंत में कहूँ तो ये एक पठनीय और प्रासंगिक संग्रह है। इधर परसाई जी ने सामाज के हर हिस्से पर अपनी नज़र घुमाई है : फिर चाहे वो धार्मिक आडम्बर हो, सरकारी भ्रष्टाचार हो, दफ्तरों में होने वाली जी हुजूरी हो या समाज में फैली झूठी शान, दोगलापन हो। उन्होंने बुद्धिजीवियों को भी अपने निशाने में रखा। संग्रह के आखिरी तीन रचानायें निबंध है जो उस वक्त (१९७० के दशक के) कुछ महत्वपूर्ण बिन्दुओं को उठाती हैं। परसाई जी के विचार उन बिन्दुओं पर पढकर अच्छा लगा। इसमें से नर्मदा और लेखकीय संगरक्षण वाला मुद्दा तो आज भी बरकरार है। मेरी मानें तो इस संग्रह को अवश्य पढ़ें।  

    अगर आपने संग्रह को पढ़ा है इसके विषय में अपनी राय मुझे कमेंट के माध्यम से जरूर बताईयेगा। अगर आपने किताब को नहीं पढ़ा तो इसे निम्न लिंक्स से मँगवा सकते हैं:
    अमेज़न-पेपरबैक

    इसके इलावा परसाई जी कि जो रचाएं मैंने पढ़ी हैं उनके प्रति मेरे विचार आप निम्न लिंक पर जाकर पढ़ कर सकते हैं:
    हरिशंकर परसाई 
    FTC Disclosure: इस पोस्ट में एफिलिएट लिंक्स मौजूद हैं। अगर आप इन लिंक्स के माध्यम से खरीददारी करते हैं तो एक बुक जर्नल को उसके एवज में छोटा सा कमीशन मिलता है। आपको इसके लिए कोई अतिरिक्त शुल्क नहीं देना पड़ेगा। ये पैसा साइट के रखरखाव में काम आता है। This post may contain affiliate links. If you buy from these links Ek Book Journal receives a small percentage of your purchase as a commission. You are not charged extra for your purchase. This money is used in maintainence of the website.

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    8 Comments
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    1. परसाई जी के व्यंग्य बहुत रोचक होते हैं। समाज की विसंगतियों‌ पर गहरी चोट करने वाले।

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      1. सही कहा आपने। उनके व्यंग पढ़कर लगता ही नहीं कि समाज ने कुछ विकास किया है। जैसा उनके वक्त होता था वही हाल आज भी हैं। बस, तकनीक में विकास हुआ। मेरे पसंदीदा रचनाकारों में से एक हैं परसाई जी।

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    2. इसी माह मैने यह पुस्तक खरीदी है।
      परसाई जी के व्यंग मुझे बहुत पसंद है।

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      1. मेरा व्यक्तिगत तौर पर मानना है कि परसाई जी को हर हिन्दी भाषी को पढ़ना चाहिए। अगर कोई व्यक्ति केवल परसाई को पढ़ लेगा तो भारतीय समाज और उसकी मूलभूत परेशानियों के विषय में काफी कुछ जान जाएगा। पुस्तक आपको कैसी लगी यह जरूर बताइयेगा। 

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    3. आपकी समीक्षा मैंने आज पढ़ी लेकिन यह व्यंग्य संग्रह मैंने बहुत पहले पढ़ा था और यह मुझे इतना पसंद आया कि मैंने इसे कई बार पढ़ा। परसाई जी जैसा व्यंग्यकार हिन्दी साहित्य में दूसरा नहीं हुआ। उनकी सभी रचनाएं प्रत्येक साहित्य प्रेमी को ही नहीं, ऐसे प्रत्येक व्यक्ति को पढ़नी चाहिए जो समाज और देश को सच्चे अर्थों में सुधारना चाहता हो। आपकी विस्तृत समीक्षा सटीक, निष्पक्ष और अत्यन्त उपयोगी है।

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      1. जी सही कहा आपने परसाई जी को हर किसी को पढ़ना चाहिए। वह अभी भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने उस वक्त थे जब उन्होंने अपने लेख लिखे थे।

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