नेवर गो बैक | लेखक: ली चाइल्ड | शृंखला: जैक रीचर | अनुवादक: विकास नैनवाल

एक ज़मीन अपनी - चित्रा मुद्गल

रेटिंग : 4/5
उपन्यास दिसम्बर 7  2017 से दिसम्बर 16, 2017 के बीच पढ़ा गया

संस्करण विवरण :
फॉर्मेट : पेपरबैक
पृष्ठ संख्या : 206
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन
आईएसबीएन : 9788126703012
पुरस्कार: फणीश्वरनाथ रेणु सम्मान
किताब आप इस लिंक पर जाकर खरीद सकते हैं।

पहला वाक्य :
वह ठिठक गई। 

अंकिता फिल्मरस नाम की विज्ञापन कंपनी में एक फ्रीलांसर है। पिछले तीन चार सालों से वो फ्री लैंसिंग ही करती आ रही है लेकिन अभी तक कोई पक्की नौकरी उसे मिल नहीं पाई है। ऐसा नहीं है कि उसके काम की तारीफ़ नहीं होती। काम की तारीफ तो अक्सर होती है लेकिन नौकरी पाने के लिए जो तिकड़में करनी होती हैं वो उससे दूर रहना चाहती है।

उसकी फिलहाल तो एक ही इच्छा है कि उसे इस क्षेत्र में एक पक्की नौकरी मिल जाये और फ्री लैंसिंग के साथ जो एक अस्थिरता का बोध उसे होता रहता है उससे उसे छुटकारा मिले।

एक जमीन अपनी अंकिता की कहानी है जो अपने उसूलों से समझोता न करके अपने लिए एक छोटी सी जमीन का टुकडा पाना चाहती है जहाँ वो अपनी आकाँक्षाओं के पौधे रोपित कर सके।

लेकिन इस दुनिया में कुछ भी पाना इतना आसान नहीं है।

क्या अंकिता को अपनी ज़मीन मिल सकी? उसे पाने के लिए उसे क्या संघर्ष करने पड़े?

इन्हीं का ताना बाना ये उपन्यास है।


'एक जमीन अपनी' अंकिता ही नहीं शायद हर उस लड़की की कहानी है जो अपने उसूलों पर रहकर काम करना चाहती है। लेकिन वो पाती है कि खाली कार्य कुशलता के बल पर ही काम पाना इधर मुमकिन नहीं है। इधर कई लोग हैं जो तिकड़म लगाने को ज्यादा महत्व देते हैं। कई लोग हैं जिन्हें प्रतिभा के ऊपर जान-पहचान लगती है और कई लोग हैं जो अवसर देने के बदले काम के साथ कुछ और भी मांगते हैं।

कहानी की शुरुआत में वो इंदौर से कुछ दिनों की छुट्टी के बाद वापस आती है तो पाती है कि वो जिस कंपनी से पक्की नौकरी की उम्मीद लगाकर बैठी थी वही से उसे टाला जा रहा है। वो परेशान है कि ऐसा क्यों हुआ? जब उसे कारणों का पता चलता है तो वो हैरान भी हो जाती है। इन कारणों में दफ्तरी राजनीति भी एक रहती है। लेकिन वो हार नहीं मानती है। उसकी यही जीवटता उसे एक प्रेरक किरदार बनाती है। मुसीबतों को हमेशा ही झेला है। पहले परिवार की इच्छा के विरुद्ध शादी करी और फिर उस शादी को इसलिए तोड़ दिया कि उसे लगा उसे जो सम्मान मिलना चाहिये था उसे वो नहीं दिया जा रहा है। इस प्रसंग को पढ़ते हुए मैं यही सोच रहा था कि ये बहुत ही ज्यादा हिम्मत का काम है। पहले तो परिवार की इच्छा के विरुद्ध शादी करना ही बड़ा कदम होता है और फिर जब उसी शादी को खुद तोड़ना तो और कठिन काम है। इस प्रसंग को पढ़ते हुए मैं यही सोच रहा था कि उसे इस दौरान कितनी मानसिक यंत्रणायें झेलनी होंगी। एक छोटे से शहर में कितनी बातें सुनी होंगी। कई लोग पहला कदम तो उठा देती हैं लेकिन दूसरे कदम को उठाने के लिए झिझकती हैं क्योंकि अक्सर उनके पास सप्पोर्ट सिस्टम नहीं होता है। इधर वो खुश्किस्मत होती हैं कि उसके पास ऐसा सप्पोर्ट सिस्टम है। वी कहती भी है:

लड़की समाज में इसीलिए उपेक्षित,निरीह रही है क्योंकि.. अपने घर में वह मात्र कर्त्तव्य होती है- कर्त्तव्य से उऋण हो उसे पराया मान लिया जाता है...मगर जीवन-संघर्ष में आत्मविदग्ध होकर भी मैं इसलिए बच गई क्योंकि अम्माँ ने...इस घर ने मुझे कभी कर्त्तव्य से उऋण नहीं समझा... हर उस लड़की का आत्मबल प्रखर होता है, जिसे मायकेवाले पराया नहीं मान लेते। 

जैसे जैसे कहानी आगे बढती है, अंकिता के जीवन में मुश्किलें तो  आती हैं लेकिन साथ ही अवसर भी आतें हैं। इन दोनों के बीच वो अपने लिए जगह बनाने की जद्दोजहद में लगी रहती है।

उपन्यास मुझे बहुत पसंद आया। अंकिता एक प्रेरक किरदार है। ऐसी कई महिलायें हमारे आस पास हैं जो कि चुपचाप अपना काम कर रही हैं और इन सब चीजो  को झेलती हैं जिससे अंकिता को झूझना पड़ता है। उपन्यास पढ़ते वक्त आपको उनके चेहरे अपने मन में उभरते दिखेंगे।

उपन्यास की नायिका अंकिता ही है लेकिन उसके आस पास के किरदार भी उतने ही जरूरी है।

उपन्यास में अंकिता के अलावा नीता भी एक महत्वपूर्ण किरदार है। नीता अंकिता से एकदम अलग है। जहाँ अंकिता में झिझक ज्यादा है वहीं नीता बिंदास है।  उसे पता है उसे क्या चाहिए और वो उसे पाने के लिए कुछ भी करने को तैयार रहती है। चाहे वो आदमियों को अपनी उँगलियों पर नचाना हो या तिकड़में लगाकर नौकरी की तलाश करना हो। वो जानती है कि समझौतों के बिना वो अपनी इच्छाएं पूरी नहीं कर सकती है और उसे वो समझौते करने में भी गुरेज नहीं है।

 वो दिखने में तो बहुत ही सशक्त किरदार लगती है लेकिन ये ताकत ऊपरी है। कई बार मुझे उस पर दया भी आई थी। और उसका अंत जिस तरह से दिखाया उससे दुःख भी हुआ। ऐसा नहीं होना चाहिए था। लेकिन फिर इच्छाएं ऐसी ही होती हैं। हम लोग किसी चीज के पीछे जब भागना शुरू कर देते हैं तो सब कुछ छोड़कर उसके ही पीछे लग जाते हैं। ऐसा करते ही हम कई महत्वपूर्ण चीजो  को अपने पीछे छोड़ देते हैं जो कि उस वक्त तो हमें इतना महत्वपूर्ण नहीं लगती लेकिन जब अपनी मंजिल पर हम पहुँचते हैं तो उन्हीं चीजो  की कमी हमे खलने लगती है और जो हमने दौड़ भाग के साथ कमाया वो बैमानी सा लगने लगता है। ये एहसास नीता को भी होता है। नीता ऐसे ही लोगों का पक्ष पाठक के सामने रखती है। और सिखाती है कि सुखमय जीवन के लिए एक सामंजस्य का होना जरूरी है।

उपन्यास में नीता और अंकिता के बीच कई बार बहस होती है। कई बार ये बहसें नारी की स्वतंत्रता और आधुनिक नारी की छवि के ऊपर होती है जिनके प्रति दोनों के अलग अलग विचार है। ये बहसें भी काफी रोचक थी। अलग अलग विचारों के होते हुए भी वे एक दूसरे के सुख दुःख में काम आती हैं और शायद मुंबई जैसे शहर में नीता ही अंकिता के एक लौती महिला मित्र है। दोनों एक दूसरे के लिए कितना महत्वपूर्ण है ये उपन्यास के आखिर तक पता चल जाता है।

नीता के अलावा हरीन्द्र भी एक महत्वपूर्ण किरदार है। उपन्यास में वो तभी आता है जब अंकिता किसी मुसीबत से झूझ रही होती है। हरीन्द्र अंकिता के जीवन को संबल प्रदान करने वाले लोगों में सबसे अग्रणी है। वो अंकिता की प्रतिभा को पहचानता है और उसे उसी दिशा में काम करने को प्रेरित करता है। हरीन्द्र शादी शुदा है और चूंकि अंकिता का तलाक हो गया है तो शुरुआत में उनकी दोस्ती से हरीन्द्र के घर में भी परेशानी होती है। ऐसे में वो कैसे इस दिक्कत हो हैंडल करते हैं वो भी देखने योग्य है।

उपन्यास में मेहता का किरदार भी महत्वपूर्ण है। वो अंकिता का सहकर्मी है जो कि दफ्तर में उसके सुख दुःख का साथी है। लेकिन उसकी व्यक्तिगत ज़िन्दगी ढर्रे से अलग चल रही है। बीवी कोकिला का उसके छोटे भाई के साथ अन्तरंग सम्बन्ध है। वो जानता है कि उसके अंदर ही अपने रिश्ते को लेकर एक तरह का उदासीन रवैया  था जिससे ये परिस्थिति उत्पन्न हुई। वो इस चीज को नज़रअंदाज करता रहता है जो कि मुझे ठीक नहीं लगा। रिश्तो  में मेरे हिसाब से बातचीत बहुत जरूरी होती है। फिर चाहे वो कोई भी रिश्ता हो। अगर बातचीत ही न हो तो रिश्ता अपने आप खत्म होने लगता है। यही उसके साथ होता है। मेहता जैसे न जाने कितने लोग ऐसे ही रिश्तों की अर्थियाँ लेकर घूम रहे हैं और इन रिश्तो का अंत अक्सर दुखद ही होता है।

उपन्यास का एक मुख्य किरदार भोजराज भी है जो कि पेशे से व्यवसायी हैं। वो अंकिता का मेंटर भी हैं। अक्सर व्यवसायी शब्द जब हम सुनते हैं तो एक काईयें  व्यक्ति की इमेज मन भी आती है। एक सफल व्यवसायी बनने के लिए भी शायद ऐसे गुण चाहिए होते हैं। फिर इसके साथ जो ताकत आपके पास होती है वो भी काफी हद तक आपको भ्रष्ट कर सकती है। ऐसे में अपने उसूलों के साथ समझोता करे बिना किसी व्यवसायी के लिए काम करते जाना असंभव सा लगता है। अंकिता का दोस्त हरीन्द्र उसे इस बाबत समझाता भी है और एक प्रसंग ऐसा भी आता है जब अंकिता फ्लिमी तरीके से अपना त्यागपत्र देने की कोशिश करती है। उस परिस्थिति को बहुत ही खूबसूरत तरीके से चित्रा जी ने दर्शाया है। विशेषकर जिस प्रकार भोजराज अंकिता को समझाते हुए कहते हैं:

'दरअसल किसी भी जिम्मेदार व्यक्ति को किसी भी आक्षेप से विचलित नहीं हो उठना चाहिए, तब तक जब कोई बात दूसरे पक्ष को जानने के आशय से की जा रही है, न कि संशय की दृष्टि से। यूँ अपने अधिकार छोड़कर चल देना स्वाभिमान की रक्षा करना नहीं है, संघर्ष करना उसकी रक्षा की लड़ाई है.. इस तरह से तो आप जिन मूल्यों की लड़ाई लड़ रही हैं, उनके हंताओं के समक्ष घुटने टेकना होगा- वे अपने उद्देश्य में सफल हो जाएँगे..'

उपरोक्त कथन काफी तर्क संगत  है और मुझे लगता है व्यक्ति में आदर्श के साथ साथ इस तरह की सोच होना भी जरूरी है।

इन किरदारों के इलावा उपन्यास में दफ्तरी जीवन में आने वाले हर तरह के किरदार और पहलूँ है। किसी न किसी किरदार को देखकर आपको लगेगा कि अरे ये तो फलाना है या उसके जैसे है। कहानी जीवन के काफी नजदीक है और खाली विज्ञापन जगत की ही नहीं बल्कि हर तरह के दफ्तर  की कहानी लगती है। इधर मैंने नकारात्मक किरदारों के विषय में नहीं लिखा है। उपन्यास में उनकी भी कमी नहीं है। वो उपन्यास पढ़ते हुए ही आप जाने तो बेहतर रहेगा।

उपन्यास में कमी तो मुझे नहीं दिखी। हाँ, एक आध बातें खटकी थी। एक तो ये कि पूरे उपन्यास में अंकिता की माता जी की जब भी बात आती है तो उन्हें खड़ी बोली की जगह अपनी गाँव की बोली में बात करते हुए दर्शया गया है। लेकिन एक बार वे अंकिता से कहती हैं:

'मजबूती अपने अंतरमन में ही होती है बिट्टी! कोई उसे किसी को दे नहीं सकता है। हाँ, उसका मनोबल सींचकर वह उस दृष्टि को विकसित करने में अवश्य सहायक सिद्ध हो सकता है... जो भीतर की अदृश्य शक्ति को अन्वेषित कर व्यक्ति को चुनौतियों का सामना करने का साहस और आत्मविश्वास प्रदान करती है...जिनमें वह शक्ति अन्वेषित नहीं हो पाती, वे संघर्ष से पलायन कर आत्मघात को प्रवृत्त होते हैं या समझौते को...।'

इस डायलॉग को पढ़ना मेरे लिए अटपटा था। अंकिता भी इसके बाद हैरानी जताती है क्योंकि लेखिका लिखती हैं: 'यह अम्माँ हैं! सुनकर अचरच से उसका मुँह खुला रह गया था।' मैं ये नहीं मानता कि अम्मा ऊपर दी गई बात नहीं कह सकती थीं। बस मेरे विचार से इस पूरे डायलॉग को इतनी क्लिष्ट हिंदी की जगह बोली में दिया होता तो वो ज्यादा सटीक और किरदार के अनुरूप लगता। अचानक अम्माँ का ऐसी क्लिष्ट हिंदी बोलना थोड़ा अप्राकृतिक लगा था और एकदम से मुझे खटका था।

 कई बार आपसी बातचीत में बोले जाने वाले शब्द भी ज्यादा क्लिष्ट लगे थे। मैं जब ऐसे शब्द का प्रयोग करता हूँ तो कई बार सामने वाला टोक देता है कि क्या बोल रहे हो भाई। हिंदी में बोलो। ऐसे में अंकिता को किसी ने टोका नहीं ये मुझे अचरच की बात लगी। खैर, ये मेरा व्यक्तिगत अनुभव है। हो सकता है जब उपन्यास लिखा हो तो लोग ऐसे ही बातचीत करते हों।

इन दोनों चीजो और नीता का जो अंत दिखाया उसके अलावा  मुझे उपन्यास में कहीं कोई कमी नहीं लगी। उपन्यास मुझे काफी पसंद आया और मैं चाहूँगा आप भी इसे एक बार जरूर पढ़े। इनके इलावा उपन्यास में काफी मार्मिक दृश्य है। कई प्रसंग है जो आपके मन पर गहरी छाप छोड़ देते हैं और आपको सोचने पर मजबूर कर देते हैं।

उपन्यास के कुछ अंश

बारीकी से सोचने पर पुनः उसकी पूर्व धारणा स्पष्ट हुई है कि लोग उसके सामने खामोशी अपनाकर उसे बहकने ही नहीं देते अपितु बकायदा उकसाते हैं कि वो बहके और खूब बहके। जैसे किसी को अंधाधुंध पिलाने का मकसद यही होता है कि वह बेजान होकर अपनी तहों को उगल दे और लोग तमाशे का आनंद उठाएँ।

"पक्की खबर नहीं।मगर उड़ते उड़ते पता लगा है कि एक आदमी गाडी के नीचे कटकर मर गया..."
"ओह! फिर गाडी और लेट हो सकती है।"
"आदमी मरा है, टक्कर थोड़े ही हुई है."
किसी ने कहा तो सुनकर उसके रोएँ खड़े हो गए। एक सिहरन-सी कौंधी देह में। तत्काल हट दी वहाँ से।कितनी विचित्र बात है! दारुण सत्य! आदमी के लिए आदमी की मौत एक खबर-भर है! सामान्य!महत्वपूर्ण है गाड़ी का विलम्ब होना!चिंता का विषय है गाड़ी का देरी से पहुँचना!

भीतर इतना कुछ अमूल्य पोटलियों में गठियाया हुआ पड़ा रहता है, जिसे उस भीतर को सौंप, स्मृतियों में सीलकर विस्मृत कर देते हैं हम… कि इन चीजों का अब जीवन या जीने से क्या वास्ता !… कभी अनायास किसी और प्रयोजन से किसी अन्य सूत्र की टटोलती हुई उंगलियाँ अचानक इन पोटलियों में से किसी एक से टकरा जाती हैं और… उसकी गाँठ अनायास ढीली पड़ जाती है… तब, उसके कुछ होने का अहसास आँखें खोलता है… भूमि में सुरक्षा की दृष्टि से गाड़कर बिसार दी गई उस अनमोल निधि की मानिंद, जिसके सहसा हाथ लग जाने से ऐसा महसूस होता है कि न जाने कितनी दुविधाओं, दुश्चिंताओं और कष्टों से मुक्ति के द्वार खुल गए हैं...

अगर आपने उपन्यास पढ़ा हुआ है तो आपको ये कैसा लगा ये बताना नहीं भूलियेगा। अगर आपने उपन्यास नहीं पढ़ा है तो आप इसे निम्न लिंक से मँगवा सकतें हैं :
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इस उपन्यास का अंग्रेजी में The Crusade नाम से  तर्जुमा हुआ है। अगर आप अंग्रेजी में उपन्यास पढने के शौक़ीन हैं तो उसका किंडल संस्करण इस लिंक से खरीद सकते हैं।
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