नेवर गो बैक | लेखक: ली चाइल्ड | शृंखला: जैक रीचर | अनुवादक: विकास नैनवाल

ताश के पत्तों का शहर - राजकमल चौधरी

रेटिंग : 4/5
उपन्यास 16 अप्रैल 2018 से 29 अप्रैल 2018 के बीच पढ़ा गया
उपन्यास दोबारा 15 जून 2018 से 17 जून 2018 के बीच पढ़ा गया

संस्करण विवरण : 
फॉर्मेट : हार्डबैक
पृष्ठ संख्या : 138
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन
आईएसबीएन : 8170550785



पहला वाक्य:
संजय बहुत देर से बालकनी पर चुपचाप खड़ा था।


मानिक 'रंगमंच' का सम्पादक था जो कि उसके दोस्त संजय द्वारा शुरू की गई थी। रंगमंच एक कदरन नई सांस्कृतिक पत्रिका थी जिसमे विज्ञापनों की कमी के कारण वो घाटे में चल रही थी। इसी चीज का तोड़ निकालने के लिए वंदना सिंह, जिसे लोग बोनी के नाम से जानते थे, को रंगमंच में बुलाया गया था। बोनी का काम था कि उसे हर महीने पत्रिका के लिए आठ से दस पृष्ठ नए विज्ञापन लाने थे।

लेकिन फिर कुछ ऐसा हुआ कि मानिक ने खुद को रंगमंच से दूर कर दिया।  अब उसके पास ये सवाल था कि वो रिजक कमाने के लिए क्या करेगा। उसके साथ बोनी भी थी जिसकी जिम्मेदारी उसके ऊपर ही थी।

आखिर ऐसा क्या हुआ था कि मानिक को अलग होना पड़ा? आखिर बोनी उसके साथ क्यों अलग हुई? मानिक ने आगे क्या  किया?


मुख्य किरदार :
मानिक लाल - रंगमंच एक सप्ताहिक सांस्कृतिक अखबार के सम्पादक 
संजय कुमार अग्रवाल  - मानिक का दोस्त, रंगमंच का मालिक 
वंदना सिंह उर्फ़ बोनी - एक युवती जो रंगमंच में काम करने के लिए आई थी 
चन्द्रावती नीलम - एक मशहूर थिएटर अभिनेत्री 
डी एन सिंह - संजय का दोस्त और बिज़नस पार्टनर। डी एन सिंह अपराधिक गतिविधियों जैसे स्मगलिंग में भी लिप्त था 
मिसेज सिंह - बोनी की माँ। एक मिशनरी स्कूल में टीचर थीं 
मिसेज मार्गरेट मल्लिक - बोनी की मौसी जो उनके घर में ही रहती थी 
मिस्टर सरावगी - एक थिएटर प्रेमी और एक समाजसेवी 
इब्राहिम - नीलू का जानकार जो खुद को एक फिल्म प्रोडूसर बताता था 

राजकमल चौधरी जी के विषय में जब कहीं पढ़ा तो मन बना लिया था कि उनका लिखा पढ़ना है। क्या पढ़ा था और किधर पढ़ा था ये अब स्मृति से लोप हो चुका है। लेकिन उससे फायदा ये हुआ कि ये उपन्यास देखते ही मँगवा लिया थ। अब दो बार इस उपन्यास को पढ़ चुका हूँ और दो बार और इसे पढ़ सकता हूँ। 

उपन्यास की बात करूँ तो पहले पन्ने से ही बात करना शुरू करूँगा। उपन्यास के पहले पन्ने पर अक्सर लेखक उन लोगों का नाम लिखते हैं जिन्हें वो उपन्यास को समर्पित कर रहे  हैं। इस उपन्यास को भी लेखक ने 1961 की दो स्त्रियों को समर्पित किया है और साथ में एक प्रश्न किया है कि क्या वे लेस्बियन नहीं थी। यह चीज पढ़ते ही  मैंने इस उपन्यास को पढ़ने  का निर्णय ले लिया था। 

सम्लेंगिकता पर हिन्दी में शायद कम लिखा गया है। शायद इसलिए कहा क्योंकि अभी मुझे भी हिन्दी साहित्य में काफी कुछ पढ़ना है इसलिए हो सकता है कि अगर लिखा गया हो तो वो मुझे न पता हो। जब मैंने देखा इस उपन्यास को दो समलैंगिक स्त्रियों को समर्पित किया है तो ये तो साफ था उपन्यास में ऐसे दो किरदार मिलने वाले हैं। और उन्हें लेखक ने कैसे प्रस्तुत किया है वो देखने को मेरा मन उतुस्क था। अक्सर समलैंगिकता को एक विकार के रूप में प्रस्तुत किया जाता है जो कि मेरे ख्याल से ठीक नहीं है। इसका सही चित्रण होना जरूरी है। 

उपन्यास ताश के पत्तों का शहर तीन भागों में बंटा हुआ है। उपन्यास मुख्यतः मानिक,बोनी और चन्द्रावती नीलम के इर्द गिर्द ही घूमता है। 


मानिक एक सप्ताहिक अखबार का एडिटर जरूर है लेकिन वो एक हारा हुआ इनसान है। उसने कई बार अपने उसूलों से समझौता किया हुआ है और इस कारण एक तरह की हताशा से वो भरा हुआ है। ये हताशा इसलिए भी उसे दिखती है क्योंकि उसके अंदर का रोमांटिक आदमी अभी तक खत्म नहीं हुआ है। वो उम्र के उस पड़ाव पर है जहाँ आदमी को ज्ञात हो जाता  है कि जवानी का आइडियलिस्म किसी काम का नहीं होता है। अक्सर लोग इस बात को मानकर अपने उसूलों से समझौता करके अपने मन को ऐसा कर देते हैं कि ये बातें उन्हें विचलित नहीं करती हैं। वो अपनी ज़िन्दगी में मस्त हो जाते हैं लेकिन मानिक ऐसा नहीं कर पाता है। वो अभी भी चीजें महसूस करता है लेकिन खुद को कुछ भी करने में अक्षम पाता है। लेकिन जब उसे एक बार मौका मिलता है तो वो ऐसा कर देता है। वो अपनी दोस्ती और नौकरी दोनों तक को दाँव पे लगा देता है। हम मानिक के दृष्टीकोण से ही ज्यादातर उपन्यास देखते हैं। 


चन्द्रावती नीलम एक थिएटर अभिनेत्री है जो क्लियोपेट्रा का किरदार अदा करती है। वो अच्छी अदाकारा तो है लेकिन क्लियोपेट्रा जैसा लोगों को अपनी उँगलियों पर नचाना नहीं जानती है। वो एक एक साधारण सी लड़की  है जो खूबसूरत है। वो न चाहते हुए भी वो काम कर जाती है जो बोनी उससे कराना चाहती है। हम अक्सर फिल्म या थिएटर के कलाकारों  के प्रति अपनी राय उनके द्वारा निभाए किरदारों से बना लेते हैं। इसलिए हम उन्हें सर आँखों पर बैठा देते हैं।  अक्सर ये धारणा गलत ही साबित होती है। चंद्रावती इसका उदाहरण है। 

बोनी इस उपन्यास का सबसे महत्वपूर्ण और सबसे रोचक किरदार है। वो इन दोनों से छोटी है लेकिन बहुत चालाक है। आदमी की कौन सी नब्ज़ पकडनी है ये अच्छे तरह से जानती है। मुझे लगा कि क्लियोपेट्रा के किरदार के  सबसे नजदीक बोनी ही है।  मैंने जो क्लियोपेट्रा के विषय में पढ़ा है उससे यही जाना है कि वो लोगों को आसानी से मैनिपुलेट कर देती थी और यही कारण था कि वो सम्राज्ञी रही। ये गुण बोनी में दिखते हैं। बोनी का दृष्टिकोण भी हमे उपन्यास के आखिर में देखने को मिलता है जो कि रोचक था। 
उपन्यास में समलैंगिक किरदार कौन है ये आप उपन्यास पढ़कर जाने तो बेहतर होगा। वो एक अच्छा प्लाट पॉइंट का हिस्सा है। कहानी में अच्छा घुमाव लाया गया है तो उपन्यास को रोचकता प्रदान करता है।  लेकिन उस किरदार की समलैंगिकता जिस तरह से दिखाई गई है वो प्राकृतिक नहीं है। उसकी सम्लेंगिकता परिस्थितिजन्य हैं। उसके जीवन में घटित घटनाओं के कारण वो समलैंगिक बनी है। अक्सर मानवों  के बीच  शारीरक सम्बन्ध केवल सेक्स के लिए नहीं होता। ये एक पॉवर डायनामिक्स भी होती है। किसका पलड़ा भारी है ये दर्शाने के लिए भी कई बार सम्बन्ध स्थापित किए जाते हैं। इसलिए देखा भी गया है कि जिन लोगों का विशेषकर मर्दों का बचपन में यौनिक शोषण हुआ है वो भी कई बार दूसरे पर शोषण करके उस ताकत को पाना चाहते हैं। शारीरिक सम्बन्ध अपनी ताकत को दूसरे पर थोपने का भी यह एक जरिया होता है। ये बात हर तरीके के यौन सम्बन्धों में लागू होती है। 

वह किरदार भी यही मानती है कि औरत और मर्द के बीच के इस सम्बन्ध में औरत शिकार होती है और मर्द शिकारी। और उसे शिकारी बनना पसंद है। ये बातें उसने अपने अनुभव से सीखी हैं। वो कहती है:

उसी दिन से मैं हर मर्द से डरती हूँ, चाहे वह मेरा भाई हो , या न हो! मुझसे परिचित हो या न हो! मैं डरती हूँ और दूर भागती हूँ।

औरत के प्यार में बड़ी ही मिठास और कोमलता होती है। वह जितना लेती है, ठीक उतना ही देती भी है! ;पुरुष मिठास नहीं देता, कोमलता नहीं देता। देता ही जंगलीपन! पुरुस जंगली जानवरों की तरह नोचने-खसोटने लगता है।

जानवर में खुद बनना चाहती हूँ, जानवर का शिकार नहीं।

मुझे व्यक्तिगत तौर पर लगता है कि किरदार के रूप में उसकी बात ठीक है।उससे सहानुभूति भी है और वो क्यों आदमियों का उपयोग करके उन्हें लूटती है, ये बात भी मैं समझ सकता हूँ। लेकिन व्यक्तिगत तौर पर ये मानता हूँ कि यह समलेंगिकता का सही चित्रण नहीं है। जरूरी नहीं कि हर किसी समलैंगिक के जीवन में कुछ ऐसा खौफनाक वाक्या हुआ हो। ये चीजें तो प्राकृतिक होती है। मैं इस किरदार के विषय में पढ़ते हुए यही सोच रहा था कि अगर ऐसी घटना उसके साथ नहीं घटती तो क्या तब भी समलैंगिक होती। शायद नहीं। क्योंकि फिर उसके डर का कोई कारण नहीं रहता। इसलिए जो शुरुआत उन्होंने दो स्त्रियों को समपर्ण करके की है उसका औचित्य मुझे नहीं दिखा। अगर इसलिए की क्योंकि वो लेस्बियन थी और इधर एक किरदार है तो उस किरदार की समलैंगिकता को सही तरीके से दर्शाया जा सकता था। अभी तो यही संदेश जायेगा कि किसी के जीवन में ट्रॉमेटिक इवेंट होंगे तो वो ऐसा बन जाएगा जो कि मेरी नजरों में गलत है। 

उपन्यास रोचक है। ये टूटे हुए किरदारों की कहानी हैं। वो न तो आदर्श हैं और न आदर्शवादी बनने की अपेक्षा रखते हैं। वो जीना चाहते हैं। गलतियाँ करते हैं। फिर उन्हें सुधारते हैं। कभी कुछ अच्छा करते हैं तो कभी कुछ बुरा। मर्दों के मन में अक्सर औरतों के प्रति एक सॉफ्ट कार्नर होता है तो उनकी बात को आसानी से मान लिया जाता है। कई बार इस चीज का फायदा भी वो उठाती हैं ये भी उपन्यास में दर्शाया गया है।हालांकि जो किरदार ये कर रहा है उसके अनुभवों को आप जानते हैं तो समझ सकते हैं कि वो ये क्यों कर रहा है। इससे उसकी हरकत सही तो नहीं हो जाती लेकिन आपको एक दृष्टिकोण मिलता है कि वो किरदार ऐसा क्यों बना?आप उससे सहानुभूति रख सकते हो। लेकिन फिर ये भी सच है कि दुनिया में हर किसी के पीछे ऐसा कारण हो वो जरूरी नहीं। कुछ आदमी या कुछ औरतें बुरी ही होती हैं और उनके बुरे होने के लिए उन्हें कारण नहीं चाहिए होता।


इसके अलावा 1961 के कलकत्ता का भी चित्रण इसमें किया गया है। क्लबस, होटल, घूमना फिरना। उस वक्त के लोग कैसे थे ये इससे देखा जा सकता है। कभी कभी मुझे लग रहा था कि मैं मुंबई के विषय में पढ़ रहा हूँ। मैं उधर रह चुका हूँ तो इसमें दर्शाई काफी बातों से रिलेट कर पा रहा था। क्योंकि मुख्य किरदार सांस्कृतिक दुनिया से ताल्लुक रखते हैं तो उधर कैसे काम होता है ये भी इसमें दर्शाया गया है। समितियाँ बनने के जोड़-तोड़ को सरावगी नामक किरदार भली भाँती दर्शाता है। अक्सर साहित्य, कला और संस्कृति की दुनिया ऊपर से जितनी सुन्दर लगती है वैसे होती नहीं है। उधर कुछ लोगों के पास ज़िन्दगी बनाने और बिगाड़ने की ताकत होती है तो वो उसका दुरूपयोग करते हैं। इसमें संस्कृतिकर्मी भी पीछे नहीं रहते। यही सब उपन्यास में भी दर्शाया गया है। पैसे के लिए आदर्शों को ताक पर रख भी वो लोग जीते हैं जिन्हें हम सिनेमा स्क्रीन या थिएटर के स्टेज पर देखकर प्रभावित होते हैं। शायद इसलिए शीर्षक भी ताश के पत्तों का शहर रखा गया था। ताश के पत्तों की इमारतों तरह उपन्यास के किरदारों के चरित्र हैं जो आसानी से बनते और बिगड़ते जाते हैं। 

उपन्यास का टोन थोड़ा उदासी भरा है। लेकिन किरदार चूँकि इंटरेस्टिंग हैं तो पढ़ने में मुझे मज़ा आया। इसी कारण दो बार इसे पढ़ लिया। बीच के हिस्से काफी खूबसूरत तरीके से लिखे हैं तो उन्हें बार बार पढने का मन करता है।

उपन्यास के वो अंश जो मुझे अच्छे लगे:

हम लड़ाई नहीं करते, परिस्थितियों के बुने हुए शतरंज में प्यादों की तरह हाथ बाँधे खड़े रहते हैं। अदृश्य हाथ हमें उठा लेते हैं और किसी दूसरे खाने में डाल देते हैं। अदृश्य हाथ हमे उठा देते हैं और शतरंज की बिसात से बाहर फेंक देते हैं।

समर्पण मुझे साहस और शक्ति देता है। समर्पण मुझे जीवन देता है। जो व्यक्ति एक महती भावना के प्रति अपना सम्पूर्ण अस्तित्व समर्पित नहीं करते हैं, अपनी शंकाओं और अपनी हीनताओं के कारण; वे निश्चय ही निरीहता और परिताप में जीवन व्यतीत कर देते हैं। मनुष्य तो स्वभाव से ही निरीह होता है। प्रकृति से डरता है। प्रतिकूल परिस्थितियों से डरता है। प्रतिवेषी और प्रतिद्वंदियों से डरता है। ज्ञात से, अज्ञात से, दृश्य से,अदृश्य से डरता है। कारण से डरता है। अकारण से डरता है। और, समर्पण ही उसे शक्तिवान करता है। क्योंकि,समर्पण आस्था है। क्योंकि, समर्पण एक शक्तिसम्पन्न जीवन है।

बीतते हुए वक्त के हर लम्हे के साथ हमारे इर्दगिर्द फैली हुई यह दुनिया हमारे लिए अधिक पराई, अधिक अजनबी होती जाती है। लम्हे एक दूसरे में रेशम के लच्छों की तरह उलझने लगते हैं। लोगों के चहरों के फ्रेम के बीच की तस्वीरें धुँधली पड़ जाती हैं। कोहरे की नीली परतें हर शक्ल को ,हर रंग को, हर ख्याल को डुबो लेती हैं।

आदमी घर के बाहर कदम रखते ही अपने को कपड़ों के अन्दर छिपा लेता है। नकाब पहन लेता है। किन्तु, घर के अन्दर खुला रहता है, नंगा रहता है। और, घर के अन्दर आदमी चाहे जितने नकाब लगाये रहे, जितनी बनावटी आकृतियों में कैद रहे, उसके घर का अन्तरंग स्वयं आदमी के वर्तमान और अतीत और सुरुचि और संस्कार का सही और सम्पूर्ण चित्र उपस्थित कर देता है। 

मध्यवर्ग में पले हुये युवकों के जीवन में ऐसा अवसर कम ही आता है कि, संध्या की नीरवता में कोई मनपसंद युवती उसका साथ दे रही हो। ऐसा अवसर कम ही आता है, क्योंकि मध्यवर्ग की अपनी विवशताएँ होती हैं, अपनी कुंठाएँ होती हैं। मध्यवर्ग का अपना संस्कार होता है, और इस संस्कार को सिर्फ एक ही वस्तु तोड़ सकती है- धनराशि!

उदासी मेरे जीवन की एकांत अनिवार्यता बन गई है। क्योंकि, मैं वस्तुओं और घटनाओं और व्यक्तियों के बारे में सोचता हूँ। क्योंकि, उन्हें अपने अनूकूल बनाना चाहता हूँ। बना नहीं पाता हूँ, और उदास रहता हूँ।

मेरे पास धनराशी नहीं है। मेरे पास ऐसी कोई चीज नहीं है, जो किसी आधुनिक युवती को मेरे साथ संध्या की नीरवता में चलने के लिए उत्साहित कर सके। मेरे पास चंद सपने हैं।


औरतें अधिक यथार्थवादी होती हैं। वे यथार्थ चाहती हैं, सपना नहीं चाहती।


राजकमल जी का ये पहला उपन्यास है जो मैंने पढ़ा। अब दूसरे उपन्यासों को खोजकर पढ़ने की इच्छा मन में जाग गई है।

अगर आपने इस उपन्यास को पढ़ा है तो आपको ये कैसा लगा? अपने विचारों से मुझे कमेंट के माध्यम से अवगत करवाईयेगा।

अगर आप इस उपन्यास को पढ़ना चाहते हैं तो निम्न लिंक के माध्यम से इसे मँगवा सकते हैं:
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4 Comments
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  1. बढ़िया और विस्तृत समीक्षा की है।अच्छा उपन्यास लग रहा।मैं भी खरीदकर पढ़ता हूँ इस उपन्यास को।

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    1. बढ़िया,पढियेगा और फिर अपने विचारों से मुझे अवगत करवाईयेगा।

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  2. उपन्यास का नाम काफी सुना है। अच्छी समीक्षा । उपन्यास पढने का प्रयास रहेगा।
    - गुरप्रीत सिंह

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    1. उपन्यास पर लिखा लेख आपको पसंद आया यह जानकर अच्छा लगा। उपन्यास के प्रति आपके विचारों की प्रतीक्षा रहेगी।

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