नेवर गो बैक | लेखक: ली चाइल्ड | शृंखला: जैक रीचर | अनुवादक: विकास नैनवाल

जैनी मेहरबान सिंह - कृष्णा सोबती

रेटिंग : 2.5/5
किताब अगस्त 9,2018 से अगस्त 10,2018 के बीच पढ़ी गई

संस्करण विवरण:
फॉर्मेट : पेपरबैक
पृष्ठ संख्या : 127
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन
आईएसबीएन:9788126716821






पहला वाक्य:
वैन्कूवर के सरदार मेहरबान सिंह के फार्म-हाउस की एक शाम।

सरदार मेहरबान सिंह को रहते कनाडा में रहते हुए काफी अरसा गुजर गया था। उनकी बेटी जेनी मेहरबान सिंह बढ़ी हो चुकी थी और उसे याद  नहीं था कि कभी उसके पिताजी ने वापस जाने की इच्छा जताई हो। कुछ तो था भारत में ऐसा जिससे मेहरबान सिंह दूर चले आये थे और वापस नहीं जाना चाहते थे।

लेकीन फिर उस दिन जेनी के जन्मदिन की पार्टी के बाद जब बाप बेटी आपस में बातचीत कर रहे थे तो मेहरबान सिंह ने अपनी दिली इच्छा जैनी को बताई थी। वो चाहते थे कि सबकुछ भूलकर एक बार अपने गाँव अपने पिंड वापस जाएँ।

पर शायद नियति को कुछ और ही मंजूर था और इसी इच्छा को लिए मेहरबान सिंह दुनिया से कूच कर गये।

जैनी के मन में अपने पिता की व्यक्त की गई ये आखिरी इच्छा ही रह गई। और उसने उनकी इच्छा पूरी करने की ठानी। और वो भारत आने के लिए निकल पड़ी।

भारत में आकर न केवल वह अपने बिछड़े परिवार से मिली बल्कि अपने पिता की गुजरी ज़िन्दगी के वो हिस्से भी उसे मालूम पड़े जिसके कारण उसके पिता इधर से दूर चले गये थे। भारत आना उसके लिया और भी कई अनुभव लाया और इन अनुभवों ने उसके जीवन की दिशा को ही बदल दिया।

आखिर क्यों मेहरबान सिंह भारत छोड़ कनाडा चले गये थे? भारत में जैनी के परिवार का कौन कौन सदस्य था? पंजाब के गाँव में सुनहरे बालों वाली जैनी के क्या अनुभव रहे? और उसके जीवन की दिशा कैसे बदली?

यही सब प्रश्न आपके मन में उठ रहे होंगे। है, न? उत्तर तो आपको इस किताब को पढ़ने के पश्चात ही पता चलेंगे।

मुख्य किरदार:
जैनी मेहरबान सिंह - एक युवती जिसके पिता तो पंजाब के थे लेकिन वो मूलतः कनाडा में पली बड़ी है
मेहरबान सिंह - जेनी के पिता
इकबाल - जैनी का बचपन का दोस्त
निकोलस - जैनी का दोस्त
लिज़ - जैनी की माँ
मारिया - मेहरबान सिंह की दोस्त जिसे वो चाहता था
हरनाम सिंह - जैनी का चाचा। मेहरबान सिंह का भाई जिसे मेहरबान सिंह की माँ ने गोद लिया था।
साहबकौर - भारत मेहरबान सिंह के पड़ोस के गाँव में रहने वाली एक औरत
जोरावर - साहबकौर का बेटा
गुरनाम सिंह - मेहरबान सिंह के दोस्त और इकबाल के पिता
विली नोर्मन - एक अमरीकी कलाकार जिससे जैनी भारत जाने वाली फ्लाइट में मिली थी
चेत सिंह आहलुवालिया - मेहरबान सिंह के दोस्त और पट्टीवाल के निवासी जिनसे जैनी फ्लाइट में मिली थी
सतबीरी - साहबकौर की दोस्त
प्रीतिपाल सिंह - साहबकौर का भाई
बंता सिंह ,फुम्मन सिंह,कर्तारा, अवतारा,गुमान सिंह,अजीत सिंह - पट्टीवाल में मौजूद लोग
कुर्बान सिंह - एक डकैत
फूलर,डिक,रीमा - हिप्पी लोग जो विली नार्मन के दोस्त थे और साथ में जैनी के भी
टीका साहब - जोरावर के पिता

कुछ दिनों पहले एक ट्रिप के दौरान जैनी मेहरबान सिंह पढ़ी। यह कृष्णा जी की तीसरी पुस्तक है जिसे मैंने पढ़ा। किताब की शुरुआत मैं जैनी को रचे जाने का किस्सा है जो कि बहुत दिलचस्प है। यहाँ खाली ये बताना मुनासिब होगा कि मित्रो के कारण जैनी का जन्म हुआ। शायद मित्रो न होती तो जैनी भी न होती। बाकी पूरा किस्सा आप किताब में ही पढ़ें तो बेहतर रहेगा।

यह किताब एक फिल्म की कहानी के तौर पर  लिखी गई थी। और पढ़ते हुए इसका एहसास हो जाता है। इसमें गहराई थोड़ा कम है। कहानी सीन के हिसाब से बढ़ती है। फिल्मो में अक्सर इस्तेमाल होने वाले नुस्खे इधर दिखते हैं। जैनी बाहर रही है, उसके बाल सुनहरे रंग के हैं जो उसे नानी से विरासत में मिले हैं और उसे भारतीय कम और विदेशी ज्यादा दिखाते हैं। परन्तु इन सबके चलते वह अपनी भारतीयता के नजदीक है। वह ऐसी काफी चीजें निपुणता से कर लेती है जिन्हें शहर में रहने वाली आम भारतीय लड़की को करने में नानी याद आ जाये। कनाडा में रहते हुए भी अच्छी पंजाबी बोलना, प्रोफेशनल गायकों की तरह गाना, चरखा चलाकर धागा कातना जैसी चीजों में भी वो निपुण है। कहानी में पारिवारिक रंजिश है। प्यार है, उसका परिवार के आगे कुर्बान होना है, फिर दूसरी पीढ़ी का इन दकियानूसी ख्यालों से ऊपर उठना भी है और ऐसे किरदार भी हैं जो दिखते अच्छे है लेकिन वो साजिश रच रहे होते हैं। यानी फिल्म में इस्तेमाल होने वाले साले मसाले इसमें है।

कृष्णा जी लिखती हैं कि जिन फ़िल्मकार के लिए उन्होंने यह  लिखी थी उन्होंने इस पर कुछ नहीं बनाया। यह कहानी एक विकल्प की तरह लिखी गई थी और जिसका ये विकल्प था उसके आगे यह  कहानी साधारण सी लगती है। और मैं समझ सकता हूँ कि क्यों इसमें कुछ नहीं बन पाया था।

कहानी सीन के हिसाब से बढती है और इससे कभी कभी लगता है कि कहानी का एक हिस्सा अधूरा सा छोड़कर हम आगे बढ़ गये हैं। कहानी टूटती सी महसूस होती है। जैसे जब साहब कौर के विषय में जैनी और उसके पिता बात करते हैं तो पता नहीं लगता कि ये विषय कब उनके बीच में आया। पार्टी चल रही होती है और जैनी मारिया के विषय में बात करती है। फिर मेहरबान सिंह उसे अपने कमरे में बुलाते हैं। इन दोनों के बीच लगा जैसे कुछ है जो बताया नहीं गया। खुद ही अटकले लगानी पड़ी मुझे।

कहानी में एक बार कुर्बान सिंह का प्रसंग है। वो डकैत है और जैनी से बदला लेना चाहता है। उसकी उनसे पुश्तैनी दुश्मनी है। इधर जैनी उससे अपनी सूझ बूझ से निपटती है। ये प्रसंग कहानी के बीच में रोमांच तो पैदा करता है लेकिन अटपटा लगता है। गाँव के लोग ही डाके में शामिल होते हैं ये बात थोड़ी अटपटी मुझे लगी। हो सकता है पंजाब के गाँव ऐसे ही हों लेकिन मेरे लिए थोड़ा अटपटा था। क्योंकि डाके से पहले गुमान सिंह साधारण रूप से  ही लोगों से मिल रहा था। कहानी से यह भी  पता लगता है कि डाका उन्होंने पहली बार नहीं डाला है। यानी गाँव वालों को पता रहता ही है कि यह लोग डकैत हैं। फिर गाँव के लोगों का व्यवहार उसके प्रति इतना नार्मल कैसे था। हमारे इधर तो ऐसे व्यक्ति से दूरी ही बनाकर लोग रखते। यह हिस्सा थोड़ा सा मुझे अटपटा लगा। मैं इस समीकरण के विषय में और जानना चाहता था। ऐसा क्यों है वो लोग डकैतों के साथ भी इतना मिल जुलकर रह रहे हैं। उधर का समाज किस तरह काम करता है।

ऐसे ही यौनिक उन्मुक्ता दिखाने के लिए इधर हिप्पियों का इस्तेमाल किया है। वो नशा करते हैं, यौन सम्बन्धों के प्रति उनके विचार काफी खुले हुए हैं- ये कुछ ऐसी बातें हैं जो कि स्टीरियोटाइप हैं। ज्यादतर लोग इससे परिचित होंगे और उनके मन में हिप्पियो के प्रति यही ख्याल होंगे। यहीं चीजें वह  इधर भी करते हैं। कुछ और इस जीवन शैली के विषय में दिया होता तो बढ़िया रहता। ऐसा क्यों हुआ कि उनका आम ज़िन्दगी से मोहभंग हो गया। जब हिप्पी जीवनशैली की शुरुआत हुई थी तो युवा अपने समाज से त्रस्त थे। उस दौरान ऐसे कई सारे आन्दोलन चल रहे थे जिनसे थक हार कर युवा ने समाज से कटकर खाली ज़िन्दगी को एन्जॉय करने की सोची थी। लेकिन इधर ऐसा कुछ नहीं पता चलता।

ऐसी ही कुछ चीजें हैं जिन्हें छूकर हम गुजर जाते हैं। फिल्म के तौर पर ये चीजें तो चल सकती हैं लेकिन पाठकों के लिए इसमें थोड़ा और विस्तृत सामग्री होनी चाहिए थी तब जाकर शायद संतुष्टि मिलती।

एक चीज जो किताब में अच्छी लगी वो थी कि किस तरह उपन्यास में आने वाले मर्द रिश्तों के नाम पर जैनी को कण्ट्रोल करने की कोशिश करते हैं। जैनी बाहर पली बड़ी है और उसे यह बातें अटपटी भी लगती हैं लेकिन वो जिस तरह से बात को मनवाती है वो मुझे अच्छा लगा। हर चीज गुस्से से डील नहीं करनी चाहिए। जैनी उनकी बात सुनती है और उन्हें अपने विचारों से अवगत करवाती है। करती वही है जो उसे पसंद है लेकिन बिना मतलब का क्रांतिकारी रवैया अख्तियार नहीं करती है। इसी कारण काफी बातें वह रिश्तों में खटास लाये बिना ही सुलझा देती है।

उपन्यास के बाकी किरदार कहानी के अनुरूप तो ठीक हैं लेकिन उनमें गहराई थोड़ा कम है। साहब कौर की दास्ताँ दुःख भरी है। टीका साहब का किरदार भी मुझे छुआ था। टीका साहब, जिससे साहब कौर का रिश्ता जबरदस्ती होता है, जानता है कि उसकी पत्नी के मन में कोई और है। यह चीज साहब का बेटा भी जानता है। टीका साहब खुद कथानक में मौजूद नहीं है। उनका बस जिक्र एक बार आता है। मैं पढ़ते हुए यही सोच रहा था कि उसके मन में क्या विचार रहते होंगे। जोरावर के हिसाब से वो अच्छा आदमी था। लेकिन अगर आपको पता हो आपकी पत्नी आपके साथ रह तो रही है लेकिन मन में उसके कोई और है। भले ही वो न उससे मिले,न उसकी बात करें फिर भी आपके मन में क्या होगा। यही चीज पत्नी के ऊपर भी लागू होती है। यानी जब पति ऐसा मिले तो जिसके मन में कोई और हो तो उसके मन में क्या होता होगा? वो साथ कैसे रह पाते होंगे? मैं खाली यही सोच रहा था। क्या खुद से झूठ बोलते बोलते पूरी ज़िन्दगी काटी जा सकती है। क्योंकि पढ़ते हुए तो मैं ऐसे जीने की कल्पना भी नहीं कर सकता था। मैं अलग होना ज्यादा पसंद करूंगा। टीका कैसे साथ रह सकता था? शायद, वो भी साहबकौर से प्यार करता रहा होगा? और शायद उसके मन में ये भावना आई होगी कि कभी तो वो उसके विषय में ऐसे सोचे जैसे वो अपने प्रेमी के विषय में सोचती थी। कुछ भी हो सकता था। ऐसे रिश्तों और उन  किरदारों के मन के भावों को जानने की मेरी तम्मना रही है। अगर आप ऐसी उपन्यासों से वाकिफ हैं जो ऐसे पक्षों को एक्स्प्लोर करते हैं तो उनके विषय में मुझे कमेन्ट के माध्यम से बताईयेगा। एक उपन्यास तो चितकोबरा ही है। मृदुला गर्ग जी का यह उपन्यास ऐसी थीम पर तो नहीं था लेकिन उसमें भी पति का किरदार था जो पहले पत्नी से प्यार नहीं करता था लेकिन जब उसे प्यार हुआ तो पत्नी को किसी और से हो गया और अब स्वार्थवश नजरअंदाज कर देता था।

किताब पठनीय है इसमे कोई दोराय नहीं है। मैंने किताब शुरू की थी। ट्रेन में किताब पढ़ते हुए ही दाखिल हुआ था। और ट्रेन में ही किताब को पढ़कर किनारे रख दिया था। यानी एक सिटींग में ही इसे खत्म कर दिया था।


हाँ , अगर इस कहानी को थोड़ा विस्तृत रूप देकर एक उपन्यास की तरह दोबारा लिखा जाता और वैसी गहराई लाने की कोशिश की जाती तो पढ़ने में मुझे ज्यादा मजा आता और पाठक के रूप में संतुष्टि मिलती । किताब औसत से अच्छी है और एक बार पढ़ सकतें हैं।

ऐसा ही एक फ़िल्मी उपन्यास पति, पत्नी और वह मैंने पढ़ा था। उपन्यास कमलेश्वर जी का था। उसमे दो भाग थे और दोनों को लेकर अलग-अलग फिल्म बनी थी।

ऐसे और कौन से उपन्यास है जो फिल्म के लिए लिखे गये थे? अगर आपको जानकारी हो तो इसके विषय में कमेन्ट के माध्यम से मुझे जरूर बताईयेगा।

किताब के कुछ अंश जो मुझे पसंद आये:

इकी, पापा का कहना है - हर दिल एक सूरज है, हर सूरज में गरमाहट है, एक कसक, एक तमन्ना फूल खिलाने की। 

अजीब बात है, बचपन के ख़्वाब कभी धुँधलाते नहीं। मुरझाते नहीं। सफ़र की हर मंज़िल पार करते हम बार-बार उस झुरमुट से होकर जाते हैं जहाँ से हमे पहली आवाज़ पड़ी थी। पहली पुकार सुनी थी।

क्या आपने इस किताब को पढ़ा है? अगर पढ़ा है तो आपको ये कैसी लगी? आप अपने विचारों से मुझे कमेन्ट के माध्यम से अवगत करवा सकते हैं। अगर आप इस किताब को पढ़ना चाहते हैं तो आप इसे निम्न लिंक के माध्यम से मँगवा सकते हैं:
पेपरबैक
हार्डबेक

कृष्णा सोबती जी के दूसरी कृतियाँ भी मैंने पढ़ी हैं। उनके विषय में मेरे विचार आप निम्न लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं:
कृष्णा सोबती
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