नेवर गो बैक | लेखक: ली चाइल्ड | शृंखला: जैक रीचर | अनुवादक: विकास नैनवाल

ललिता - रानी सुरेश कुकशाल

किताब 27 अक्टूबर 2018 से 28 अक्टूबर 2018 के बीच पढ़ी गई

संस्करण विवरण:
फॉरमेट : हार्डबैक
पृष्ठ संख्या : 86
प्रकाशक : समय साक्ष्य
आई एस बी एन: 9789386452368


ललिता - रानी सुरेश कुकशाल
ललिता - रानी सुरेश कुकशाल


प्रथम वाक्य:
बात आज से तकरीबन पचास साल पहले की है।

ललिता के पास आज एक भरा पूरा परिवार है। उसके तीन लड़के हैं जिनकी शादी हो चुकी है। उन तीन लड़कों से बच्चे हैं जो कि घर में रहते हैं। यानी वह सभी कुछ है जिसकी उसने कभी कल्पना की थी। आखिर यही तो उसने चाहा था। उसका एक परिवार हो,अपना भरा पूरा घर हो।

बचपन से लेकर जवानी तक दुखो को सहती आई ललिता दुनिया की नज़र में आज सुखी है। भौतिक रूप से भी उसके पास सब कुछ है। परन्तु इन सबके होते हुए भी एक अकेलापन है जो मन के किसी कोने में आकर बस गया है। ललिता ने अपना जीवन दूसरों की खुशी के लिए बिता दिया। उसने अपना सब कुछ दूसरों की खुशी के लिए न्यौछावर कर दिया।

अब अपनी ढलती उम्र में जब उसके पास वक्त है तो वह यही सोचती है कि उसने अपने जीवन में कितना पाया और कितना खोया।

आखिर कौन है ललिता? उसका जीवन कैसा रहा?

ललिता के बचपन से वृद्ध होने की दास्ताँ को लेखिका ने इस उपन्यास के कथानक में पिरोया है।


मुख्य किरदार

ललिता : उपन्यास की नायिका
सोनू - ललिता के चाचा का लड़का
गभू चाचा - ललिता के गाँव के रिश्तेदार
घिल्डियाल दादी - गाँव में मौजूद एक बाल विधवा जिसे ललिता से स्नेह था
गजेन्द्र - ललिता के पिता
राजेन्द्र - ललिता के बड़े जेठ। नागपुर में आयकर विभाग में कार्यरत हैं।
गौरांगी - ललिता की बड़ी जेठानी
नरेन्द्र - ललिता के छोटे जेठ
कामिनी - ललिता की छोटी जेठानी
सुगंधा - ललिता की बड़ी ननद
घनश्याम - सुंगधा के पति
वृहदा - घनश्याम की पहली पत्नी
स्नेहा - वृहदा की सहेली
सौम्या : ललिता की मंझली ननद
नरेन्द्र - ललिता का बड़ा देवर
मृदुला - ललिता की छोटी ननद
देवेन्द्र - ललिता का सबसे छोटा देवर
दुलारी - ललिता के सुसुराल में काम करने वाली नौकरानी
लाटा और नयाराम - दुलारी के भाई
संकीर्तन - जतनपुर गाँव का रहने वाला
आरती - मल्ली में रहने वाली एक लड़की
बुढ़िया - आरती की माँ
विष्णु - आरती का पति
स्वामी  रामदास - एक आश्रम के बाबा जिनका आश्रम हर की पैड़ी के नजदीक था
बर्खा - संकीर्तन की पत्नी
लक्ष्मी और विजया -बर्खा की सौतेली बहनें
मनबहादुर - एक लड़का जिसको दुलारी पसंद थी
संचय, संजय ,सम्भव - ललिता के बेटे
ग्रेसी - संचय की पत्नी
बिंदु - संजय की पत्नी
ख्याति - संभव की पत्नी

पहाड़ के परिवेश को उकेरते कथानक मुझे हमेशा से ही पंसद हैं। पहाड़ कहीं के भी हो घर का एहसास दिलाते हैं। वहीं पहाड़ पर केंद्रित उपन्यास, फिर चाहे वह किसी भी पहाड़ के हो, उनको पढ़कर एक अपनापन स लगता है। उन पहाड़ों में रहने वाले किरदारों, जीवन और संस्कृति से खुद का जुड़ाव महसूस करता हूँ। यही कारण है जब मुझे ललिता के विषय में पता चला तो इसे खरीदना मेरे लिए स्वाभाविक ही था। 'ललिता' इस मामले में विशेष है क्योंकि इस उपन्यास की पृष्ठभूमि ही गढ़वाल है। मेरा घर गढ़वाल में है तो कह सकते हैं इसका कथानक को पढ़ना मेरे लिए अपने घर के आसपास घूमने जैसा ही था।

ललिता की कहानी बेकफ़्लैश में चलती है। ललिता अब साठ साल से ऊपर की हो चुकी है। उसके बेटों की शादी हो चुकी है। उसके पोते पोतियाँ हैं। उसके बच्चे अपने जीवन में व्यस्त हैं। अब एक अकेलापन सा ललिता को सालता रहता है। यही अकेलापन उसे सोचने पर मजबूर करता है कि अब तक अपने जीवन में उसने क्या अर्जित किया और अपने चुनावों के कारण उसने क्या खोया? उसकी यही सोच उसे अपने बीते जीवन को याद करने पर विवश करती है और उसकी बचपन से लेकर आजतक की ज़िन्दगी उसकी आँखों से गुजरने लगती है। और पाठक भी इसी तरह ललिता की कहानी से रूबरू होता है।

उपन्यास रोचक है। ललिता एक सीधी साधी लड़की है। बचपन से लेकर काफी बड़े होने तक यह सीधापन उसके दुखों का कारण भी बनता है। उसके जीवन में आये लोग उसके सीधेपन के कारण उसे दुःख भी देते हैं लेकिन जीवन की छोटी छोटी खुशियाँ को पाकर ही वह इन दुखों को भूल जाती है। ललिता की कहानी के आलावा उपन्यास में कई रोचक प्रसंग हैं। अलग अलग किरदारों के जीवन से जुडी कहानियाँ हमे पढ़ते हुए पता चलती हैं। इन कहानियों में कई रोचक प्रसंग आते हैं जो कि पठनीय है। इन प्रसंगों में युवास्था का प्रेम है, ठगी,धोखा और लालच के चलते चोरी करने वाला किरदार है, पति पत्नी का प्रेम है, नई पत्नी का अपने पति के दिल जीतने का प्रसंग है, और ऐसी कई छोटी छोटी शरारते हैं जो हँसाती है, रोमांचित करती हैं और पाठक की कथानक में रूचि बरकरार करती है। बीच में एक प्रसंग ऐसा है जिसमें ललिता अपने पति के साथ गंगोत्री, यमनोत्री इत्यादि की यात्रा करती है। चूँकि मुझे भी ट्रेकिंग पसंद है तो इसे पढ़कर मुझे लगा जैसे मैं कोई यात्रा वृत्तान्त पढ़ रहा हूँ और इसने मुझे आनन्दित किया।

इन सब प्रसंगों में एक रोमांचक प्रसंग ऐसा है जिसमें ठगी है। एक व्यक्ति के पास एक बेसहारा मदद के लिए जाती है। वह चाहती है वो उसे कुछ रूपये दे जिसके एवज में वो उसके गहने रख देता है। यहाँ तक कहानी ठीक चलती है। इसके बाद कहानी में एक मोड़ आता है और वह किरदार बुढ़िया के गहने हथिया लेता है। इसके बाद वह गहने लेकर हरिद्वार निकल जाता है। यहाँ से मुझे प्रसंग के तर्क में थोड़ी सी कमी  दिखी। किरदार हरिद्वार जाता है उधर गहनों को ठिकाने लगाता है और उसके पैसों को लेकर घर जाने के बजाय कुछ और करने लगता है। यह मुझे अजीब लगा। अगर मेरे पास इतने पैसे हैं कि किसी को उधार दे सकूँ तो मेरे घर बार इतना कम तो नहीं होगा कि कुछ गहनों के लिए मैं उस घर को छोड़ दूं। और चलो मैंने ऐसा किया भी तो एक बार उन गहनों को ठिकाने लगाने के बाद मेरा घर आना ही तर्कसंगत होता। परन्तु वह ऐसा नहीं करता है और इसलिए मुझे यह छोटी सी बात खटकी। परन्तु इस एक बात को छोड़कर यह प्रसंग काफी रोचक मोड़ अख्तियार करता है।

इसके आलावा कहानी मुझे पसंद आई। हाँ कई बार ऐसे लगा कि कहानी में उतना विवरण नहीं है जितना की मैं चाहता था। उपन्यास का कथानक गढ़वाल,मुंबई और गुजरात में घटित होता है। मुंबई के गणेशोत्स्व का हल्का सा विवरण है। अगर ऐसे ही विवरण कुछ और होते जो इधर की संस्कृति को दर्शाते तो मुझे ज्यादा पसंद आता। यही बात गढ़वाल में घटित हुए प्रसंगों  के लिए भी कही जा सकती है।ऐसा नहीं है कि इससे कहानी में कोई अधूरापन महसूस होता है बस पाठक के रूप में मेरी चाह होती है अगर कहानी में किसी जगह के विषय में बताया हो तो वह इतना हो कि मुझे ऐसा लगे जैसे मैं उसी जगह में सांस ले रहा होऊँ। इतना विवरण हो कि अगर भविष्य में उधर जाऊँ तक मुझे लगे कि मैं इधर पहली बार नहीं आ रहा या उधर की संस्कृति से मेरा इतना परिचय हो जाए कि मुझे लगे जैसे मैं किसी दूसरी जगह घूम कर आया हूँ। यह सब मेरी अपेक्षाएं हैं। लेखिका ने कथानक के हिसाब से सभी चीजें सही दर्शाई है। एक कौथिक जाने का विवरण होता तो मज़ा आ जाता। लेकिन यह मेरा लालच ही है जो यह सब लिखने पर मजबूर कर रहा है। हाँ, गुजरात के प्रसंग में गुजरात कम दिखता है।अगर उधर ऐसा कुछ दिखता तो ठीक रहता। 


हम उपन्यास के किरदारों को ललिता के माध्यम से ही जानते हैं और उनका विवरण तब तक ही मिलता है जब तक कहानी के लिए वह जरूरी है। कहानी के सारे किरदार जीवंत है और कहानी के अनुरूप हैं। हाँ, ललिता के भाई का जिक्र कहानी के शुरुआत में था। उसके बाद भी एक बार उसका जिक्र आता है। ललिता का उस पर स्नेह था। अपनी यादों में वह खोयी हुई है तो मुझे उम्मीद थी उसके ब्याह का प्रंसग भी कहानी में आएगा। ऐसा नहीं हुआ। होता तो अच्छा रहता। कहानी का कलेवर बढ़ता और मुझे इन किरदारों के साथ रहने का ज्यादा मौका लगता।

उपन्यास आखिर में एक प्रश्न छोड़ जाता है। अक्सर हम अपना जीवन अपने बच्चों, अपने परिवार के लोगों के चारों और बिता देते हैं। यह केवल औरतों  के लिए नहीं होता परन्तु आदमियों के साथ भी होता है। परन्तु औरतों में यह ज्यादा देखने को मिलता है। आदमी फिर काम पर जाता है तो बाहर की दुनिया से रूबरू होता है, उसका उधर का अपना जीवन होता है। औरतें, विशेषकर जो घर सम्भालती है, उनका जीवन अपने परिवार और अपने घर के आस पास ही घूमता रहता है। बाद में जब बच्चे बड़े हो जाते हैं और अपने जीवन में रम जाते हैं तो उन्हें एक खालीपन का अहसास होता है। जो परिवार उनका जीवन था। जिन सदस्यों की जरूरतों को पूरा करना उनके जीवन का ध्येय था वो ही सदस्य अब अपनी जरूरतों पर जब उन पर निर्भर नहीं रहते हैं तो उन्हें शायद ही प्रश्न कचोटता है जो कि ललिता को कचोट रहा है। भले ही यह कहानी ललिता की हो लेकिन इससे कई लोग इससे जुड़ाव महसूस करेंगे। उन्हें महसूस होगा कि यह उनकी भी कहानी है। ललिता या ललिता जैसे किरदारों को हम अपने आस पास अपने परिवारों में देखते हैं।

कथानक पढ़ने के पश्चात आप सोचते हैं कि ललिता के जो सवाल हैं उसका जवाब क्या है? मेरा मानना है कि हमे यह सोचना चाहिए कि हमारे जीवन दूसरों के चारों और न घूमता रहे। हम भले ही उनसे प्रेम करते हों लेकिन फिर भी हमारे जीवन में कुछ न कुछ ऐसा होना चाहिए जो केवल हमारे लिए हो। वह कोई कला हो सकती है, कोई नौकरी हो सकती है या ऐसी कुछ भी चीज जो परिवार बच्चे और घर के अलावा भी हमारे जीवन को उद्देश्य दे। यदि हमारे पास ऐसा कुछ रहेगा तो बच्चों के बढ़े और आत्म निर्भर बन जाने के बाद शायद यह अकेलेपन का ख्याल हमे कम आये। आज का जीवन भाग दौड़ का है। इससे हुआ यह है कि लोगों के पास दूसरों के लिए वक्त ही कम बचता है। इससे एक अकेलापन लोगों के जीवन में घर सा कर रहा है। अगर हमारा जीवन किसी के चारो और घूमता है तो हमे लगने लगता है कि हमे वो नज़रन्दाज करने लगा है। यही कारण भी है कि लोग अवसाद ग्रस्त हो रहे हैं। परन्तु अगर हमारे पास कुछ ऐसा है जो हमे भी व्यस्त रखे तो शायद यह ख्याल हमे न आये। बाकी परिवार के लोगों को सोचना चाहिए कि परिवार जरूरी है। आप कितनी भी भौतिक सुविधायें ले लो लेकिन अगर आपस में बातचीत नही हो रही है तो यह सुविधायें आपको वह सुख नहीं दे पाएंगी।

यह तो मेरे अपने विचार हैं। आप इस विषय में क्या सोचते हैं?

उपन्यास मुझे पसंद आया। उपन्यास का अंत आपको काफी कुछ सोचने पर मजबूर कर देता है।  उपन्यास का कथानक पठनीय है। पहाड़ के जीवन के पहलुओं को भी यह दर्शाता है। रानी सुरेश कुकसाल जी की यह पहली रचना था जिसे मैंने पढ़ा है। उनकी अन्य कृतियों को भी मैं जरूर पढ़ना चाहूँगा। 

मेरी रेटिंग: 3.5/5

अगर  आप इस किताब को पढ़ने चाहते हैं तो आप इस उपन्यास को निम्न लिंक से मँगवा सकते हैं:
अमेज़न-हार्डकवर
FTC Disclosure: इस पोस्ट में एफिलिएट लिंक्स मौजूद हैं। अगर आप इन लिंक्स के माध्यम से खरीददारी करते हैं तो एक बुक जर्नल को उसके एवज में छोटा सा कमीशन मिलता है। आपको इसके लिए कोई अतिरिक्त शुल्क नहीं देना पड़ेगा। ये पैसा साइट के रखरखाव में काम आता है। This post may contain affiliate links. If you buy from these links Ek Book Journal receives a small percentage of your purchase as a commission. You are not charged extra for your purchase. This money is used in maintainence of the website.

Post a Comment

2 Comments
* Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.
  1. परिवार सचमुच बहुत जरूरी है। बिना परिवार मुझे तो सब निरर्थक लगता है। कहानी पहाड़ी जीवन पर आधारित है आप ज्यादा कनेक्ट हुए होंगे। अब मुझे भी इच्छा हो रही इसे पढ़ने की। जल्द ही पढ़कर अपनी राय साझा करूँगा आपसे।

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी शुक्रिया। आप कहानी पढेंगे तो जानेंगे कि परिवार ललिता के लिए भी जरूरी था लेकिन उसके अन्दर ऐसे विचार आने के अपने कारण थे। आपकी राय का इन्तजार रहेगा।

      Delete

Top Post Ad

Below Post Ad

चाल पे चाल