नेवर गो बैक | लेखक: ली चाइल्ड | शृंखला: जैक रीचर | अनुवादक: विकास नैनवाल

साजिश - सुरेन्द्र मोहन पाठक

उपन्यास 28 जुलाई 2019 से 1 अगस्त 2019 के बीच पढ़ा गया

संस्करण विवरण:
फॉर्मेट: ई बुक
प्रकाशक: डेली हंट
प्रथम संस्करण: 2000 में प्रकाशित

साजिश - सुरेन्द्र मोहन पाठक
साजिश - सुरेन्द्र मोहन पाठक


प्रथम वाक्य:
अविनाश जोशी के शो करने पर रमी का वो हाथ खत्म हुआ। 

कहानी:
अनिल पवार की बीवी मुग्धा और साली नोनिता जब अचानक से घर से गायब हो गयी तो उसका चिंतित होना लाजमी था। वो जब बारह बजे करीब, दोस्तों के साथ जमी अपनी रमी की महफ़िल से, अपने घर लौटा था तो उसने घर से दोनों को नदारद पाया था। बाहर मूसलाधार वर्षा हो रही थी और लोनावला जैसे शहर में इतनी देर रात को बाहर निकलने का कोई तुक नहीं था।

इस खराब मौसम में वो कहाँ जा सकते थे?

वहीं पुलिस की माने तो दोनों बहने अपनी मर्जी से गायब हुई थी। उन्होंने पहले भी इस तरह का काम किया था और इस कारण कोई बड़ी बात नहीं थी कि वो अनिल से उकताकर उससे किनारा करके कहीं चली गयी हों। पर अनिल का दिल यह मानने को तैयार नहीं था कि उसकी बीवी उसे बिना बताये छोड़कर जा सकती थी।

उसका दिल कहता था कि हो न हो वो दोनों किसी साजिश की शिकार हुई थी। और इस साजिश के तार जरूर उनके अतीत से जुड़े थे। वो अतीत जिसका जिक्र उसकी बीवी उससे करने से कतराती थी।

आखिर इस तूफानी रात में कहाँ गायब हो गयी थी दोनों बहने? क्या सचमुच वो अनिल को छोड़कर चली गयी थी? या वो किसी साजिश का शिकार हो गयीं थी? क्या अनिल अपनी पत्नी और साली को ढूँढ पाया?


ऐसे ही कई प्रश्नों के उत्तर आपको इस उपन्यास को पढ़कर मिलेंगे।

मुख्य किरदार:
अविनाश जोशी - एक केमिकल कम्पनी का मालिक
चेलानी और मेंडिस - अनिल पवार के साथी जो रमी के गेम में शिरकत कर रहे थे
अनिल पवार - एक केमिस्ट जो कि जोशी की कम्पनी का एक मुलाजिम था और उसका दोस्त भी था
मुग्धा पवार - अनिल की पत्नी
नोनिता पाटिल - अनिल की साली
वसुंधरा पाटिल - नोनिता और मधु की बुआ
दशरथ राजे - अनिल का पड़ोसी
मालती राजे- दशरथ की बीवी
मिस्टर देवरे - लोकल सिविल सर्जन
जगदेव मूंदडा - जे एम थिएटर नामक नाटक कम्पनी का मालिक
दामले - मूंदड़ा का पार्टनर
कामिनी - जे एम थिएटर के ऑफिस में काम करने वाली सेक्रेटरी
अखिलेश भौमिक - एक डायरेक्टर
हर्षा गोखले - अखिलेश की सेक्रेटरी
भुजबल मोडक -  वेस्ट इंडिया डिटेक्टिव एजेंसी का एक प्राइवेट डिटेक्टिव
गोविन्द प्रभाकर - मुंबई पुलिस में सब इंस्पेक्टर
दाराब शाह - वैराइटी नाम के शो का प्रोडूसर
दिलीप दत्त - दाराब शाह का स्टेज मैनेजर
दुर्गा - एक अधेड़ औरत

मेरे विचार:
साजिश पाठक साहब की थ्रिलर श्रृंखला का उपन्यास है जो कि पहली दफा 2000 में प्रकाशित हुआ।अगर आप इस बात से वाकिफ नहीं हैं तो बता दूँ कि थ्रिलर में अक्सर पाठक साहब के उन उपन्यासों को रखा जाता है जो किसी श्रृंखला का हिस्सा नहीं है।

मैंने 'साजिश' का डेलीहंट से प्रकाशित ई-संस्करण पढ़ा है जो कि 2014 में छपा था। डेलीहंट वाला संस्करण पढ़ने के साथ नुक्सान यही होता है कि पाठकों को पाठक साहब की उस लेखकीय को पढ़ने का अवसर नहीं मिलता है जो कि उनके इस उपन्यास के साथ तब  छपी होगी जब इसका पहला प्रकाशन हुआ होगा। लेखकीय में काफी कुछ रोचक जानने को मिलता है, वो उपन्यास का ऐसा हिस्सा होता है जिसको पढ़ने में मुझे मज़ा आता है तो इस कारण लेखकीय की यह कमी मुझे इस संस्करण में खली।

साजिश की बात करूँ तो मूलतः यह एक रहस्य कथा है। दो औरतें गायब हो जाती हैं? वो गायब क्यों हुई? इस रहस्य का पता लगाने के लिए ही उपन्यास का नायक अनिल पवार अपनी तहकीकात करता है। अनिल पवार एक इंडस्ट्रियल केमिस्ट है लेकिन वक्त के हाथों मजबूर होकर उसे तहकीकात जैसा काम करना पड़ता है। क्योंकि वो नौसीखिया है तो उसका ये नौसीखियापन इस उपन्यास में दर्शाई देता है जो कि उपन्यास को रोचकता प्रदान करता है। उससे गलतियाँ होती है, वो कई जगह धोखा खाता है लेकिन अपनी पत्नी के प्रति उसका यह समर्पण ही है कि वो हार नहीं मानता है। यही चीज भावनात्मक रूप से आपको किरदार के साथ जोड़कर रखती है।

उपन्यास का कथानक इस तरह लिखा गया है कि इसमें रहस्य अंत तक बरकरार रहता है।

किरदारों की बात करूँ तो किरदार कहानी के हिसाब से फिट बैठते हैं। चूँकि मुग्धा और नोनिता फ़िल्मी दुनिया से ताल्लुक रखती हैं तो उनकी तलाश में अनिल पवार फ़िल्मी दुनिया के लोगों और थिएटर के लोगों से भी मिलता है। इस तरह हमे उस दुनिया का वही अक्स देखने को मिलता है जिसमें हर कोई किसी न किसी से किसी न किसी तरह का फायदा निकालने के चक्कर में होता है। कौन सच में आपका भला चाहता है और कौन नहीं इसका निर्णय करना मुश्किल ही हो जाता है। हालत ऐसी हो जाती है आदमी को पता ही नहीं चलता है कि कब वो भी उनके जैसे बन गया है।  हर्षा,अखिलेश भौमिक, का किरदार के माध्यम से हमे यही देखने को मिलता है।

उपन्यास में गोविन्द प्रभाकर भी रोचक है। पाठक साहब ने इस बात को कई बार अंडरलाइन (रेखांकित) किया है कि उनके उपन्यासों में पुलिस नकाबिल नहीं होती है। उनके उपन्यास में हीरो केस इसलिए पुलिस से जल्दी सुलझा देता है क्योंकि उसके पास खाली एक केस होता है जबकि महकमे में मौजूद पुलिस वाले को कई केसेस एक साथ देखने होते हैं। यही चीज इधर भी पाठक साहब गोविन्द और अनिल के बीच के डायलॉग के माध्यम से दर्शाते हैं। इस कथानक में पुलिस में पुलिस के दोनों रूप: ईमानदार और  भ्रष्टाचार में लिप्त दोनों देखने को मिलते हैं।

उपन्यास की कमी की बात करूँ तो उपन्यास चूँकि यह रहस्यकथा है तो इसका कथानक इतना तेज रफ्तार नहीं है।  उपन्यास का कथानक 21 दिसम्बर 1999 से 27 दिसम्बर के बीच फैला हुआ है। तहकीकात अपनी मंथर गति से बढ़ती है। वहीं इस दौरान हमे मुग्धा के विषय में कुछ भी पता नहीं रहता है। अगर मुग्धा के विषय में बीच बीच थोड़ा बहुत दर्शाया होता तो पाठक के रूप में एक सेंस ऑफ़ अर्जेंसी हमारे अंदर उत्पन्न होती जो कि अभी नहीं होती है। हम ये सोचते कि जल्द से जल्द अनिल मुग्धा का पता लगाये। चूँकि हमे नहीं पता कि मुग्धा जिंदा है या नहीं या उसके साथ क्या बीत रही है तो पाठक के रूप में हमारे मन में मुग्धा का पता शीघ्र अतिशीघ्र लगने की इच्छा नहीं पनपती है न ही हमे इस बात का एहसास होता है कि मुग्धा कितने देर की मेहमान है।

इसके अलावा उपन्यास में जो मुख्य रहस्य  खुलते हैं उसमें इत्तेफाक का बड़ा हाथ होता है। अगर इत्तेफाक न होकर अनिल गुनाहगार तक किन्ही सबूतों के माध्यम से पहुँचता तो मेरे हिसाब से बेहतर होता।

पाठक साहब भावनाओं से ओत प्रोत  दृश्य और किरदार लिखने में उस्ताद हैं और यह इधर भी साफ़ झलकता है। अनिल की विरह वेदना साफ़ झलकती है और आपको उससे सहानुभूति होती है। वहीं अंत में एक किरदार ऐसा काम कर जाता है कि वो बरबस ही पाठक साहब के उपन्यास तीन दिन की याद दिला देता है।

उपन्यास की शुरुआत इस तरह होती है जिसमें मुग्धा को अपने पति की माली हालत की चिंता नहीं रहती है।  जबकि पति पत्नी का रिश्ता ही ऐसा होता है कि उन्हें एक दूसरे के साथ मिल जुल कर जीवन की गाड़ी खींचनी होती है।  मुग्धा ये नहीं करती लेकिन फिर भी अनिल उसे चाहता है।  उसका और उसकी बहन का यही फिजूलखर्ची वाला व्यवहार  भी कुछ हद तक उनकी परेशानी के पीछे रहता है।  उपन्यास के समापन के बाद मुझे यह जानना था कि क्या ये  दोनों अंत सामंजस्य स्थापित करने में सफल हुए या नहीं।  वैसे इस बिंदु पर उनके बीच बातचीत तो होती है लेकिन उस वक्त घटनाक्रम इतनी तेजी से बढ़ रहा होता है कि ढंग से इसके ऊपर बात नहीं हो पाती है।  अगर इस उपन्यास में उपसंहार भी होता जिसमें इस घटना के कुछ महीनों या वर्षों बाद की ज़िन्दगी दर्शाई होती तो मुझे ज्यादा बेहतर लगता।

अभी के लिए इतना ही कहूँगा साजिश मुझे पसंद आया। यह एक अच्छी रहस्यकथा है जिसने मेरा पूरा मनोरंजन किया। किरदार हमेशा की तरह यथार्थ के नजदीक हैं और तीन आयामी हैं। आप उनसे जुड़ाव महसूस करते हैं, उनके विषय में चिंता करते हैं और उनके जीवन में आगे क्या होगा ये जानने को उत्सुक रहते हैं।

मेरी रेटिंग: 3.5/5

अगर आपने इस उपन्यास को पढ़ा है तो आपको यह कैसा लगा? अपने विचारों से मुझे जरूर अवगत करवाईयेगा।

सुरेंद्र मोहन पाठक जी के मैंने  दूसरे उपन्यास भी पढ़े हैं। आप उनके विषय में मेरी राय निम्न लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं:
सुरेन्द्र मोहन पाठक

हिन्दी पल्प के दूसरे उपन्यासों के विषय में मेरी राय आप निम्न लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं:
हिन्दी पल्प साहित्य

© विकास नैनवाल 'अंजान'
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4 Comments
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  1. Replies
    1. जी आभार, हितेश भाई। आजकल आप क्या पढ़ रहे हैं???

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  2. नॉवेल लिया है हाल ही में | देखते है कब पढ़ने का नम्बर लग पाता है |

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    1. जी ले लिया है तो अब पढ़ ही लोगे। आराम से पढ़िए। मज़ा आएगा। 

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