नेवर गो बैक | लेखक: ली चाइल्ड | शृंखला: जैक रीचर | अनुवादक: विकास नैनवाल

देवदास - शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय

किताब 25 अक्टूबर 2019  से 27 अक्टूबर 2019 के बीच पढ़ी गयी

संस्करण विवरण:
फॉर्मेट: हार्डबेक | पृष्ठ संख्या: 118 | प्रकाशन: सत्साहित्य प्रकाशन | मूल भाषा: बांग्ला

देवदास - शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय
देवदास - शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय
पहला वाक्य:
बैसाख की दोपहरी थी, धूप बहुत तेज थी और गर्मी भी बहुत पड़ रही थी।


कहानी:
देवदास और पार्वती (देवदास की पारु) बचपन से साथ बड़े हुए, हँसे रोये, खेले कूदे और हमेशा ही उन्होंने यही सोचा था कि वो साथ में जियेंगे और साथ ही मरेंगे। पारो देवदास से प्यार करती थी और उसे यकीन था कि देवदास भी उससे उतना ही प्यार ही करता है।

लेकिन नियति को शायद कुछ और ही मंजूर था। देवदास और पारो जुदा हो गये। 

और यह जुदा होना देवदास जैसे अपनी मृत्यु की तरफ बढ़ने लगा। धीरे-धीरे तिल-तिल कर मरते हुए  के अलावा उसके मन में किसी और स्त्री का नाम अगर था तो वो थी केवल चन्द्रमुखी। 

आखिर देवदास और पारो क्यों जुदा हुए? देवदास के जीवन में आगे चलकर क्या हुआ? चन्द्रमुखी कौन थी?

उसके जीवन में जो कुछ घटित हुआ वही कहानी लेखक इस उपन्यास में सुना रहा है।
मुख्य किरदार:
देवदास मुखर्जी - उपन्यास का नायक 
पार्वती चक्रवर्ती उर्फ़ पारो - देवदास की सहपाठिन और पड़ोसी
भोलानाथ - देवदास और पार्वती का सहपाठी 
नारायण मुखर्जी - देवदास के पिता और तालसोनापुर इलाके के जमींदार 
गोविन्द - पार्वती और देवदास के शिक्षक 
नीलकंठ चक्रवर्ती -  पार्वती के पिता
धर्मदास - देवदास के घर का नौकर जिसने देवदास का शुरू से लालन पालन किया है
हरिमति - देवदास की माँ 
मनोरमा - पार्वती की सहेली 
भुवन चौधरी -हाथी पोता गाँव के जमींदार जिनके साथ पार्वती का रिश्ता तय हुआ था 
महेंद्र दस - भुवन चौधरी का बड़ा लड़का 
यशोदा - भुवन चौधरी की लड़की 
द्विज्दास मुख़र्जी - देवदास का बड़ा भाई 
चुन्नीलाल - देवदास के हॉस्टल में रहने वाला युवक जिसने उसे चन्द्रमुखी से मिलवाया था
चन्द्रमुखी - एक वैश्या जिसके पास चुन्नीलाल जाता था
मोदी दयाल - एक पैसे लेने देने वाला व्यक्ति जिसके पास चन्द्रमुखी ने पैसे रखे हुए थे 

मेरे विचार:
देवदास शरत चन्द्र जी के लिखा गया उपन्यास है जिसका पहली बार प्रकाश सन 1917 में हुआ था। तब से लेकर आज तक इसका निरंतर प्रकाशन होता रहा है। इस उपन्यास के ऊपर बनी फिल्मों ने भी इस उपन्यास की याद लोगों के मन में ताज़ा रखी है। अगर यह बोला जाए कि देवदास शरत जी की सबसे प्रसिद्ध कृति है तो शायद गलत नहीं होगा। इसी कारण ज्यादातर लोगों, भले ही उन्होंने न उपन्यास पढ़े हों और न ही फिल्में देखी हो, इसकी कहानी का थोड़ा बहुत अंदाजा है। मैं ही देवदास की इस प्रसिद्धि से वाकिफ था और यही कारण है कि काफी पहले मैंने यह ले ली थी। जब मैंने देवदास ली थी तो उस वक्त तक मैं शरत जी द्वारा लिखे कुछ उपन्यास और कहानियाँ पढ़ चुका था। तब तक देवदास फिल्म देखने का मौका नहीं लगा था और इस कारण सोचा था कि उपन्यास पढ़ने के बाद ही फिल्म भी देखी जाएगी। अब चूँकि उपन्यास पढ़ लिया है तो अब जल्द ही फिल्म भी देखूँगा। 

खैर, उपन्यास पर वापिस आते हैं तो जैसा की नाम से जाहिर है देवदास उपन्यास देवदास मुख़र्जी की कहानी है। देवदास मुख़र्जी जिसके लिए लेखक अंत में कहता है कि :

तुममें से जो कोई यह कहानी पढ़ेगा, वह मेरी तरह ही दुःख पायेगा। फिर भी अगर कभी देवदास की तरह अभागे, असंयमी और पापी के साथ परिचय हो, तो उसके लिए प्रार्थना करना कि और जो कुछ भी हो, किन्तु इस तरह उस जैसी मौत किसी की न हो!

यह एक त्रसिदी(ट्रेजेडी) है। एक इनसान के बर्बाद होने की कहानी है। और इस बर्बादी के पीछे किसी और का नहीं बल्कि उस इनसान की ही कमजोरी का  हाथ रहा है। वह निर्णय नहीं ले पाता है और फिर जब निर्णय न लेने से चीजें उसके हाथ से निकल जाती हैं तो आगे होने वाली घटनाओं के कारण दुखी होकर खुद को बर्बाद करने पर तुल जाता है। ऐसा नहीं है कि उसे आबाद होने के मौके नहीं मिलते हैं लेकिन कई मौके उसे मिलते हैं। लेकिन  उन मौको का लाभ उठाने के बदले वह खुद को बर्बाद करने को ज्यादा वरियता देता है। उपन्यास पढ़ते वक्त कई बार मुझे देवदास से खीज भी उठी थी और कई बार चिढ़  भी होती है। उसकी कई हरकतें ऐसी हैं जिसे देखकर मन में आता है कि कैसा इनसान है ये? मन में घृणा भी उत्पन्न होती है। पर जब देवदास के विषय में लेखक कहते हैं :

सावधान और बुद्धिमान लोगों की यह आदत होती है कि आँख से देखकर ही वे किसी चीज के गुण-दोष का निर्णय नहीं दे डालते हैं- सब तरह से विचार किये बिना वे कोई निर्णय नहीं दे डालते- सब तरह से विचार किये बिना वे कोई निर्णय नहीं देते। महज दो और देखकर चारों ओर की बातें नहीं करते। परन्तु एक तरह के और लोग होते हैं, जो ठीक इसके विपरीत होते हैं। किसी भी चीज के बारे में अच्छी तरह से विचार करने का धैर्य उनमें नहीं रहता। कोई चीज हाथ में पड़ते ही, उसकी अच्छाई-बुराई के बारे में वे निश्चित धारणा बना लेते हैं। डूबकर देखने के लिए परिश्रम करने के बदले, ये लोग अपने विश्वास के बल पर ही काम चला लेते हैं। ऐसी बात नहीं कि ये लोग संसार में काम नहीं कर सकते, बल्कि कई बार अधिक काम भी कर देते हैं। भाग्य ने साथ दिया, तो ये लोग उन्नति के सर्वोच्च शिखर पर दिखलाई देते हैं, और नहीं तो अवनति के गड्ढे में, हमेशा के लिए सो जाते हैं। फिर उठ नहीं पाते, सम्भल नहीं पाते और न तो संसार की ओर आँख उठाकर देखते ही हैं ; बल्कि निश्चल, मृत और जड़वत पड़े रह जाते हैं। देवदास भी ऐसे ही लोगों में से था।(पृष्ठ 43)

तो आपको यह अहसास  होता है कि सिवाय दुःख व्यक्त करने के आप उसके लिए  कुछ और नहीं कर सकते हैं।  उसका विनाश होना अटल है। आप उसे रोक नहीं सकते। आप उसे रोक भी नहीं सकते। वह कमजोर है, वह जानता है और शायद यही ग्लानि उसे कचोटती रहती है। और इसी की सजा वो खुद को दे रहा है। और जो व्यक्ति खुद को ही सजा दे रहा है तो उससे चिढ़ना, उससे क्या नफरत करना, उससे क्या घृणा करना। 

उपन्यास में देवदास के इतर तीन चार मुख्य किरदार हैं। 

पहली किरदार है पार्वती। पार्वती देवदास की पड़ोसन और बचपन की दोस्त है जो उससे बेइन्तहा मोहब्बत करती है। देवदास भी उससे मोहब्बत करता है लेकिन पहले को खुद यह बात कबूल नहीं करता है और जब उसे इस बात का अहसास होता है तो काफी देर हो जाती है। पार्वती एक सशक्त स्त्री है जो अपनी बात रखने में जरा भी झिझक नहीं करती है। जब उसकी शादी कहीं और तय हो जाती है तो वह देवदास से बात करने खुद जाती है। जब उसकी दोस्त उसे इस कारण टोकती है तो उसका जवाब होता है: 

मनो दीदी, झूठमूठ ही तुम अपने माथे में सिन्दूर लगाये हो। पति किसे कहते हैं, यह नहीं जानती। अगर वे मेरे स्वामी नहीं होते, अगर उनसे किसी तरह की लाज शरम होती तो क्या मैं उनके लिए इस तरह मरती रहती? छोड़ो दीदी, मरता क्या न करता, विष भी मीठा हो बन जाता है। उनसे मुझे कोई लाज शर्म नहीं। (पृष्ठ 32 )

वही जब देव से भी वह अपनी बात करने में शर्माती नहीं है। वह उससे प्रेम करती है उसके आगे अपना सब कुछ समर्पित कर देती है लेकिन जब उसे लगता है कि देव ने उसके साथ गलत किया तो उसे अपनी बात सुना भी देती है। 

पार्वती ने कहा- “क्यों नहीं! तुम कर सकते हो, और मैं नहीं? तुम सुन्दर हो, किन्तु गुणवान नहीं- मैं सुन्दर हूँ और गुणवान भी। तुम बड़े आदमी हो, किन्तु मेरे पिता भिखमंगे नहीं हैं। इसके अलावा; मैं भी तुम लोगों से किसी तरह कम नहीं रहूँगी, यह तुम जानते हो।” (पृष्ठ 45)

यही नहीं जिस तरह से वह अपने ससुराल को सम्भालती है वह भी उसकी समझदारी को दर्शाता है। मुझे यह सब पढ़ते वक्त जरूर यह महसूस हो रहा था कि देवदास सचमुच अभागा है जो उस वक्त अपने पिता के सम्मुख खड़ा नहीं रह सका और पार्वती का साथ छोड़ दिया। 

पार्वती के बाद देवदास की ज़िन्दगी में जो महत्वपूर्ण किरदार आता है वह चुन्नीलाल का है। वह उसी होस्टल में रहता है जहाँ देवदास रहता है। यही वो किरदार के जिसके माध्यम से देवदास शराब पीना सीखता है, वेश्याओं के पास जाना सीखता है और अपनी बर्बादी के ओर अग्रसर होता है। ऐसा नहीं है कि चुन्नी नहीं होता तो देवदास बर्बाद नहीं होता लेकिन फिर शायद वह अपनी ज़िन्दगी में आने वाली उस स्त्री से नहीं मिलता जिसे पार्वती के बाद उसने सबसे ज्यादा प्यार किया था। हाँ, उपन्यास में चुन्नी के विषय में कम ही बताया जाता है। उपन्यास में वो दो तीन बार ही आता है और इस कारण हम उसके विषय में ज्यादा कुछ नहीं जान पाते हैं। पढ़ते वक्त मुझे लगा था कि शरत जी को चुन्नी लाल के किरदार को और विकसित करना चाहिए था। वह रोचक किरदार था।उसने क्यों वैश्यालय जाना शुरू कर दिया? यह प्रश्न मेरे ही नहीं देवदास के मन में भी आया था लेकिन इसका जवाब उपन्यास में नहीं मिलता है। मिलता तो अच्छा होता। 

 पार्वती के अलावा जिस दूसरी स्त्री से देवदास प्रेम करता है और जो देवदास से पार्वती के बराबर ही प्रेम करती है। वह पेशे से वैश्या है लेकिन प्रेम का आदर करना जानती है और देवदास के प्रेम में पड़ जाती है। वह न केवल देवदास को बर्बादी के रास्ते से हटाने की कोशिश करती है बल्कि उसको समझाने का प्रयास भी निरंतर करती है।

तुमसे सच कहती हूँ, तुम्हे कहीं दुःख होता, तो मुझे भी होता है। इसके अलावा शायद, मैं बहुत-सी बातें जानती हूँ। बीच-बीच में, नशे के झोंके में, तुमसे बहुत सी बातें सुन चुकी हूँ।  किन्तु अब भी मुझे विश्वास नहीं होता कि पार्वती ने तुम्हे धोखा दिया; बल्कि मन में आता है कि तुमने स्वयं अपने आपको धोखा दिया है। देवदास, उम्र में मैं तुमसे बड़ी हूँ, इस दुनिया में बहुत कुछ देखा है। मेरे मन में क्या होता है, जानते हो? मन में होता है कि अवश्य तुमने ही भूल की है।....

वहीं उसके जीवन में जो बदलाव आते हैं वह भी उसके प्रेम का परिचायक है। वह देवदास की मजबूरी जानती है और उस पर किसी बात का दबाव नहीं डालती है। वह उसका ख्याल रखती और जब देवदास बीमार हो जाता है तो उसे ठीक करने की पूरी कोशिश करती है।

उपन्यास के दोनों मुख्य स्त्री चरित्र कुछ इस तरह के हैं कि अगर उनमें से किसी एक का प्रेम भी किसी व्यक्ति को नसीब हो जाए तो वह शायद किस्मतवाला हो लेकिन वहीं देवदास को दोनों का प्रेम नसीब हुआ लेकिन अपनी मूर्खता के चलते वह कुछ हासिल न कर पाया। 

उपन्यास के कथानक की बात करूँ तो उपन्यास पठनीय है। उपन्यास के बाद के हिस्से विशेषकर जब देवदास कलकत्ता से इलाहबाद, फिर लाहोर और फिर मुंबई जाता है जल्दबाजी में निपटाए गये लगते हैं। इन शहरों में हुए उसके अनुभवों को बस निपटा सा दिया है। अगर इन शहरों के में जिए उसके जीवन का विस्तृत वर्णन होता तो पाठक के रूप में मुझे बेहतर लगता क्योंकि इससे उस वक्त के इन शहरों का रहन सहन का पता लगता।

देवदास का पहला प्रकाशन सन 1917 के लगभग हुआ था और उसी वक्त के समाज का यह चित्रण भी करता है। ऐसे में एक चीज जो मुझे रोचक लगी वह यह कि चक्रवर्ती परिवार में लड़कियों के लिए दहेज़ देने का नहीं बल्कि लेने का रिवाज था। 

एक और बात - उसे अभी बताये देता हूँ। अब तक चक्रवर्ती महाशय के परिवार में कन्या की शादी के लिए उतनी चिंता नहीं होती थी, जितनी पुत्र की शादी में। वे लोग कन्या की शादी में दहेज लेते, और पुत्र की शादी में दहेज़ देकर बहुत को घर लाते।(पृष्ठ 24 )

बंगाल में उस वक्त यह रिवाज होता रहा हो लेकिन ऐसा क्यों होता है यह जानने की मेरी इच्छा है। क्या अब भी बंगाल में ऐसा होता है? यह मैं जरूर जानना चाहूँगा। 

अंत में यही कहूँगा कि देवदास एक पठनीय उपन्यास है। भले ही इसका मुख्य किरदार मुझे पसंद नहीं आया  उपन्यास का अंत मन को दुखी कर जाता है। पर मैं यह भी जानता हूँ कि कई लोग दुनिया में ऐसे होते हैं जो कि अपना गम देवदास की तरह खुद ही बना लेते हैं। 

यह यहाँ देखना भी जरूरी है कि लेखक ने देवदास को बहुत साफगोई के साथ प्रस्तुत किया है। वह भी नहीं चाहते कि आप उसे पसंद करें।  वह चाहते तो इस किरदार को इस तरह प्रस्तुत कर सकते कि हमे इसके साथ सांत्वना हो। वह पार्वती और चंद्रमुखी को इस तरह प्रस्तुत कर सकते कि हमे वो खलनायिका लगें लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। देवदास उनके साथ भले ही कैसा भी व्यवहार करे वे अंत तक उससे प्यार करती रही हैं। और शायद स्त्री का प्रेम ऐसा ही होता है जिससे होता है फिर उसके दोषों के साथ भी उससे उतना ही प्रेम करती है। वहीं जिससे प्रेम न हो उसके अन्दर भले ही जमाने भर की अच्छाई हो उसके प्रति वो आसक्ति उनके मन में कभी नहीं आ सकती है। इसलिए जो भाग्यशाली होते हैं वो जब किसी पार्वती या चन्द्रमुखी के सानिध्य  में आते हैं तो इस बात का ख्याल रखते हैं कि वह उनसे दूर न जाने पाए और जो अभागे होते हैं वो देवदास बने घूमते रहते हैं। देवदास पढ़ते हुए मुझे यह भी ख्याल आ रहा था कि हाल में आई कबीर सिंह और देवदास के बीच कितनी समानताएं हैं? मैंने फिल्म तो नहीं देखी लेकिन चूँकि उसके आस पास जो विमर्श हो रहा था उससे मैं वाकिफ था तो उस विमर्श के हिसाब से ही अंदाजा लगा सकता हूँ कि काफी समानताएं दोनों किरदारों में होंगी। अगर आपने दोनों ही चीजों को देखा है तो दोनों में क्या समानताएं आपने देखी हैं और क्या फर्क आपने देखा है? अपने विचारों से मुझे अवगत जरूर करवाईयेगा।

उपन्यास के कुछ अंश जो मुझे पसंद आये:
एक बात यह है कि मनुष्य दुःख के समय में, जब आशा और निराशा का पारावार नहीं देख पाता, तब उसका दुर्बल मन अत्यंत भयभीत होकर, आशा के पास ही बंधा रह जाता है। जिससे उसका मंगल हो,उसी की वह आशा करने लगता है।

सावधान और बुद्धिमान लोगों की यह आदत होती है कि आँख से देखकर ही वे किसी चीज के गुण-दोष का निर्णय नहीं दे डालते हैं- सब तरह से विचार किये बिना वे कोई निर्णय नहीं दे डालते- सब तरह से विचार किये बिना वे कोई निर्णय नहीं देते। महज दो और देखकर चारों ओर की बातें नहीं करते। परन्तु एक तरह के और लोग होते हैं, जो ठीक इसके विपरीत होते हैं। किसी भी चीज के बारे में अच्छी तरह से विचार करने का धैर्य उनमें नहीं रहता। कोई चीज हाथ में पड़ते ही, उसकी अच्छाई-बुराई के बारे में वे निश्चित धारणा बना लेते हैं। डूबकर देखने के लिए परिश्रम करने के बदले, ये लोग अपने विश्वास के बल पर ही काम चला लेते हैं। ऐसी बात नहीं कि ये लोग संसार में काम नहीं कर सकते, बल्कि कई बार अधिक काम भी कर देते हैं। भाग्य ने साथ दिया, तो ये लोग उन्नति के सर्वोच्च शिखर पर दिखलाई देते हैं, और नहीं तो अवनति के गड्ढे में, हमेशा के लिए सो जाते हैं। फिर उठ नहीं पाते, सम्भल नहीं पाते और न तो संसार की ओर आँख उठाकर देखते ही हैं ; बल्कि निश्चल, मृत और जड़वत पड़े रह जाते हैं।

कहकर वह मौन हो गई। देवदास भी कुछ देर तक चुप रहने के बाद उदास भाव से बोला- 'किंतु कर्तव्य तो है। धर्म तो है।' चन्द्रमुखी ने कहा- 'वह तो है ही। और उसके होने से ही, देवदास,जो सचमुच प्यार करता है, वह सब बर्दाश्त कर पाता है। केवल आन्तरिक प्यार से ही जितना सुख,जितनी तृप्ति मिलती है- उसकी जिसे भनक भी मिल जाये, वह इस संसार के बीच, बेमतलब दुख और अशांति फैलाना नहीं चाहेगा।....

किंतु सभी चिंताओं की एक किस्म होती है। जिसे आशा रहती है, वे एक तरह सोचते हैं; जिसे आशा नहीं रहती, वह दूसरी तरह सोचते हैं। पूर्वोक्त चिंता में संजीवता है, सुख है, तृप्ति है, दुख है और उत्कंठा है; इसी में मनुष्य थक जाता है- अधिक देर तक सोच नहीं पाता। लेकिन जिसे आशा नहीं रहती, उसे सुख नहीं है, दुख नहीं है, उत्कण्ठा नहीं है- है तो केवल सन्तुष्टि! आँखों से आँसू गिरते हैं और गम्भीरता भी रहती है...किन्तु रोज रोज नई अंतर्पीड़ा  नहीं होती। वह हल्के बादल की तरह, जहाँ तहाँ उड़ता चलता है; जहाँ हवा नहीं लगती वहाँ से हट जाता है। तन्मय मन को, उद्वेगहीन चिन्ता में कुछ सार्थकता मिलती है।

मेरी रेटिंग: 3/5

अगर आपने इस उपन्यास को पढ़ा है तो आपको यह कैसा लगा?  अपने विचारों से मुझे जरूर अवगत करवाईयेगा। अगर आपने इस उपन्यास को नहीं पढ़ा है तो आप इसे निम्न लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं:

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय जी के दूसरे उपन्यास मैंने पढ़े हैं। उनके प्रति मेरी राय आप निम्न लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं:

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© विकास नैनवाल 'अंजान'
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